
आहत करती तस्वीर, टूटते संस्कार
देवरिया । आहत कर देने वाली यह घटना देवरिया की है, जहाँ कक्षा 11 में पढ़ने वाला एक छात्र अपने माता-पिता का इकलौता बेटा अपने ही पिता को थाने में, सबके सामने, पैरों में गिरकर माफी माँगने को मजबूर कर देता है।
कारण बस इतना कि पिता ने कुछ युवकों के सामने उसे डाँट दिया। जिस भूमि को हम भगवान राम की मर्यादा, आज्ञाकारिता और पितृभक्ति की भूमि कहते हैं, वहाँ यह दृश्य आत्मा को झकझोर देता है। राम ने पिता की आज्ञा पर राज्य छोड़ा, और आज एक पुत्र डाँट सह न पाने पर पिता को अपराधी सिद्ध करने पर तुला है।
कानून, अधिकार और संवेदना का टकराव
यह सवाल केवल कानून का नहीं है। कानून का उद्देश्य अन्याय से बचाना है, अहंकार को हथियार देना नहीं। पुलिस ने प्रक्रिया निभाई, लेकिन समाज को यह सोचने की ज़रूरत है कि क्या हर डाँट हिंसा है? क्या माता-पिता अब बच्चों को अनुशासित करने का नैतिक अधिकार भी खो चुके हैं? और क्या हम बच्चों को केवल अधिकार सिखा रहे हैं, कर्तव्य नहीं?
सबसे डरावना पहलू
सबसे भयावह दृश्य वह नहीं था जब पिता थाने बुलाए गए, सबसे डरावना दृश्य वह था जब पिता को बेटे के पैरों में गिरना पड़ा। उस पल के बाद उस पिता-माता का जीवन कैसा होगा? हर बात कहते समय डर, हर डाँट से पहले आशंका और हर दिन यह पीड़ा कि जिस बेटे को जीवन दिया, वही आज सिर झुकाने को मजबूर कर रहा है यह केवल एक परिवार का दुख नहीं, यह आने वाली पीढ़ियों का चेतावनी संकेत है।
किसकी नज़र लग गई हमारी संस्कृति को?
यह घटना पूछती है क्या हम बच्चों को संस्कार देना भूल गए? क्या मोबाइल, सोशल मीडिया और खोखले अधिकार बोध ने रिश्तों को निगल लिया? और क्या “राम की भूमि” में अब “श्रवण कुमार” की जगह “शिकायत कुमार” पैदा हो रहे हैं?
समाधान क्या है?
बच्चों को अधिकारों के साथ कर्तव्य सिखाए जाएँ, कानून के साथ संवेदना और पारिवारिक परामर्श को जोड़ा जाए, माता-पिता को अपराधी नहीं, मार्गदर्शक माना जाए। क्योंकि
जिस समाज में पिता को बेटे के सामने झुकना पड़े, वहाँ भविष्य सीधा नहीं, टूटा हुआ होता है। आपकी पीड़ा जायज़ है। यह तस्वीर सच में हमारी संस्कृति को आहत करती है।



