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एसआईआर अब राजनीति से ज्यादा मानवीय समस्या बन गई है..

लेखक : अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार

       चुनाव आयोग द्वारा देश के 12 राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों में करीब एक माह से कराए जा रहे मतदाताअों के एसआईआर ( स्पेशल इंटेसिव रिवीजन) का मुद्दा अब राजनीतिक से ज्यादा मानवीय होता जा रहा है। एसआईआर के सियासी विरोध को अलग रखे तो भी इस समूची प्रक्रिया में पूरे देश में अब तक 25 बीएलअो ( बूथ लेवल आॅफिसर) की ( तृणमूल कांग्रेस के मुताबिक 34) मौतें सचमुच चिंता पैदा करने वाली हैं और यह एसआईआर की प्रक्रियागत खामी की अोर इशारा करती है। दुख की बात तो यह है कि एसआईआर में लगे कुल जितने बीएलअो की मौतें हुई हैं, उनमें सबसे ज्यादा 9 उस मध्यप्रदेश के हैं, जहां सत्तारूढ़ दल भाजपा पूरी तरह एसआईआर के पक्ष में है। इस बीच एसआईआर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने एसआईआर जारी रखने को हरी झंडी दे दी है, लेकिन चुनाव आयोग को .इस बात पर संवेदनशीलता के साथ विचार करना चाहिए कि इस प्रक्रिया में शामिल बीएलअो एक के बाद एक जानें क्यों गंवा रहे हैं? इनमें भी उन बीएलअो के बारे में समझा जा सकता है कि जो पहले से बीमार हैं, लेकिन जो काम के दबाव को सहन न करने के कारण खुदकुशी कर रहे हैं, वह तो बहुत ही दर्दनाक और अमानवीय है। आखिर एक वैधानिक प्रक्रिया को समय पर पूरा न कर पाने के अवसाद के कारण कोई कैसे फांसी लगाकर अपने परिवार को अनाथ होने दे सकता है? क्योंकि काम समय पर पूरा न करने पाने की अधिकतम सजा सस्पेंशन ही है। जाहिर है कि यह कदम उसने गहरे डिप्रेशन और हताशा में ही उठाया होगा। इस बीच चुनाव आयोग ने बीएलअो का मानदेय बढ़ाकर दो गुना कर ‍िदया है, लेकिन इसका भी कोई सकारात्मक असर होता नहीं दिख रहा है। जानकारों का मानना है कि बीएलअो पर काम समय पर निपटाने का अत्यधिक दबाव है और समयावधि कम है। और आयोग समयावधि बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है। इसके पीछे कौन-सी जिद है, यह समझना मुश्किल है। जबकि इसके पूर्व 2003 में जो देशव्यापी एसआईआर हुआ था, वह प्रक्रिया 6 माह में पूरी हुई थी। तब न तो कहीं विरोध हुआ था और और न ही कोई खुदकुशी सामने आई थी।
जहां तक एसआईआर को रोकने की बात है तो सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर ‍िदया है कि चुनाव आयोग को इसका वैधानिक अधिकार है। आयोग को यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 324 की धारा 21 के तहत मिला हुआ है। 1952 से अब तक देश में 13 बार एसआईआर हुआ है, लेकिन कभी इस पर इतना बवाल नहीं मचा, जितना इस बार दिखाई पड़ रहा है। रहा सवाल कुछ विपक्षी दलों द्वारा एसआईआर के विरोध का तो उसके पीछे यह भय है कि इस प्रक्रिया की आड़ में उसके वोट बैंक को खत्म किया जा सकता है। बिहार में विपक्षी महागठबंधन की करारी हार से यह आशंका और बलवती हुई है, जहां 65 लाख वोट चुनाव आयोग ने काट दिए थे। हालांकि इस तरह से वोटों का काटा जाना संदेह ज्यादा है, पुष्टिकारक कम। बिहार में महागठबंधन की हार के और भी कई कारण हैं। इसमें दो राय नहीं ‍िक देश में समय-समय पर मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण होना चाहिए तथा अवैध, मृत अथवा फर्जी मतदाताअों  के नाम हटने चाहिए। क्योंकि मतदान का अधिकार महज एक बटन दबाने का अधिकार नहीं है बल्कि यह देश के हर नागरिक को ‍िमला वह राजनीतिक अधिकार है, जिससे वह अपने शासकों को चुन या खारिज कर सकता है। राजनीतिक दल अपने सत्ता स्वार्थों के चलते कई ऐसे नामों को जुड़वाने में नहीं हिचकिचाते जो अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं। ऐसे भी नाम मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर हैं, जो कहीं और जाकर बस गए या भगवान को प्यारे हो चुके हैं। इस लिहाज से वोटर लिस्ट की सफाई चुनाव आयोग का लोकतांत्रिक कर्तव्य है। यही कारण है कि मतदाताअों के स्तर पर एसआईआर का कहीं कोई विरोध नहीं है। लेकिन इस बार एसआईआर का जो अमानवीय पक्ष उभर कर आया है, वह बहुत चिंताजनक और समूची प्रक्रिया पर पुनर्विचार की मांग करता है। हालांकि चुनाव आयोग का एक तर्क यह हो सकता है कि पूरे देश में 5 लाख 30 हजार बीएलअो एसआईआर में लगे हैं। इनमें से दो दहाई में कुछ लोगों की मौतें हुई है तो यह दुखद भले हो, अलार्मिंग नहीं है। लेकिन इस अमानवीय तर्क से शायद ही कोई सहमत हो। यदि काम के दबाव में एक भी सरकारी कर्मचारी की मौत हुई है तो वह चिंताजनक और गंभीर बात है। दूसरे, यह मौतें लगभग उन सभी राज्यों में हो रही हैं, जहां  एसआईआर हो रहा है। अब सवाल यह है कि क्या चु्नाव  आयोग एसआईआर पूरा करने के लिए ज्यादा समय नहीं दे सकता था? तो इसका कारण शायद यह है कि अगले साल 2026 में तीन राज्यों असम, पश्चिम बंगाल और पुदुच्चेरी के विधानसभा चुनाव मार्च/ अप्रैल में होने हैं। उसके बाद मई में केरल विस के चुनाव हैं। ऐसे में आयोग को एसआईआर प्रक्रिया हर हाल में फरवरी में पूरी कर लेनी होगी। इसका एक उपाय यह हो सकता था कि बिहार के साथ इन राज्यों में भी एसआईआर शुरू कर ‍िदया जाता तो ज्यादा वक्त मिल जाता। बीएलअो पर काम का इतना दबाव न होता। लेकिन आयोग ने इन राज्यों  को एसआईआर 2.0 में डाला। वैसे हमे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आम तौर पर असैनिक काम में लगे सरकारी कर्मचारियों को तेजी से काम करने की आदत नहीं होती। आम तौर पर काम को लटकाने में माहिर मानसिकता युद्ध स्तर पर काम कभी-कभार ही कर पाती है। वह भी अपने नियमित कामों के साथ। ऐसे में बहुत‍ से सरकारी कर्मचारी एसआईआर को हिमालय पर्वत मानकर जान देने में ही मुक्ति मान रहे हैं। 2003 के एसआईआर की तुलना में इस बार कम अ‍वधि के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि पहले सारा काम मेन्युअल होता था। अब प्रौद्योगिकी के चलते जब सब आॅन लाइन, तुरत-फुरत हो रहा है तो एसआईआर बाबा आदम की चाल से क्यों चले?
ये सारे तर्क अपनी जगह सही हैं, लेकिन बीएलअो की मौतों को केवल आंकड़ों में तौलना सही नहीं है। बेहतर होता कि गंभीर बीमारी से पीडि़त कर्मचारियों को इस जिम्मेदारी से अलग रखा गया होता। दूसरे, जो कर्मचारी काम के दबाव में हताश होकर मौत को गले लगा रहे हैं, उनकी एसआईआर ट्रेनिंग के साथ साथ काउंसलिंग भी की जानी चाहिए। एक समस्या उन वरिष्ठ कर्मचारियों के साथ भी है, जिनकी डिजीटल साक्षरता लगभग शून्य है। उनके लिए आॅन लाइन काम करना पहाड़ लांघने जैसा है। तकनीकी ज्ञान के अभाव और सीखने की अनिच्छा भी उन्हें आत्मघात की अोर धकेलती है। वैसे यह भी कड़वी सचाई है कि सोशल मीडिया के इस जमाने में छोटी-छोटी बातों पर भी खुदकुशी करने की प्रवृत्ति समाज में तेजी से बढ़ी है। इस दायरे में पांच-छह साल के बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े तक शामिल है। अब तो यह एक बड़ा सामाजिक-मानसिक रोग बनता जा रहा है, जहां व्यक्ति मामूली दबाव में भी इतना हताश हो जाता है कि जान गंवाने पर उतारू हो जाता है। बीएलअो भी उससे अलग नहीं  हैं। यहां एसआईआर एक निमित्त बन गया है। बावजूद इसके चुनाव आयोग को इसे मानवीय समस्या मानकर उसके निदान की गंभीरता से कोशिश  करनी चाहिए।

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