भारत में डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों की स्थापना को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। खासकर तब, जब कई क्षेत्रों में हर खाली सरकारी जमीन पर अंबेडकर की मूर्ति लगाने की मांग उठ रही है। यह मांग जहां एक तरफ बाबा साहेब के विचारों और सामाजिक न्याय के प्रति सम्मान के रूप में देखी जाती है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इसे एकतरफा सोच मानकर पर्यावरण और सार्वजनिक स्थानों के उपयोग पर सवाल उठा रहे हैं।
क्या भारत में अंबेडकर की मूर्तियों की कमी है?
देशभर में डॉ. अंबेडकर की लाखों मूर्तियाँ स्थापित हैं—गांवों, कस्बों, शहरों और प्रमुख चौराहों से लेकर स्कूलों, कॉलेजों और न्यायिक परिसरों तक। भारत रत्न डॉ. अंबेडकर की सामाजिक क्रांति में भूमिका अमूल्य रही है, लेकिन अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या हर नई सरकारी जमीन पर सिर्फ मूर्ति ही लगाई जानी चाहिए?
पेड़ बनाम मूर्ति: पर्यावरण की भी है अपनी जरूरत
कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरण प्रेमियों का मानना है कि सरकारी जमीनों का उपयोग सार्वजनिक भलाई के लिए होना चाहिए। उनके मुताबिक, अगर किसी खाली भूमि पर एक बड़ा छायादार पेड़ लगाया जाए, तो वह आने वाली पीढ़ियों को शुद्ध हवा, छांव और पारिस्थितिक संतुलन प्रदान कर सकता है। यह विचार खासकर उन शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में प्रासंगिक हो जाता है जहां हरियाली तेजी से घट रही है।
निजी आस्था बनाम सार्वजनिक संपत्ति
एक अन्य तर्क यह भी सामने आया है कि मूर्ति स्थापना एक प्रकार की आस्था और श्रद्धा का विषय है। इसलिए अगर किसी व्यक्ति या समूह को डॉ. अंबेडकर के प्रति सम्मान प्रकट करना है, तो वे अपनी निजी भूमि पर मूर्ति लगाकर यह कर सकते हैं। सार्वजनिक भूमि पर कोई भी स्थायी निर्माण कार्य करने से पहले समाज के अन्य वर्गों की राय, स्थानीय प्रशासन की अनुमति और पर्यावरणीय प्रभाव का अध्ययन भी आवश्यक माना जा रहा है।
निष्कर्ष । डॉ. अंबेडकर देश के संविधान निर्माता और सामाजिक समरसता के प्रतीक हैं। उनकी विरासत को सम्मान देना हर नागरिक का कर्तव्य है, लेकिन सार्वजनिक स्थानों के उपयोग को लेकर संतुलन बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है। क्या हर सरकारी जमीन पर केवल मूर्ति लगाना ही एकमात्र विकल्प है, या फिर पेड़ लगाकर पर्यावरण और भविष्य दोनों की रक्षा की जा सकती है? यह एक विचारणीय प्रश्न है जिस पर समाज को सामूहिक रूप से चिंतन करने की आवश्यकता है।
क्या हर सरकारी जमीन पर सिर्फ डॉ. अंबेडकर की मूर्ति लगाना ही विकल्प है? उठते सवालों के बीच पर्यावरण और सामाजिक संतुलन की बहस तेज
