धिरौली कोयला खदान पर विवाद: आदिवासी अधिकारों और पर्यावरण पर गहरा संकट

भोपाल। मध्य प्रदेश के सिंगरौली ज़िले के धिरौली क्षेत्र में अडानी समूह द्वारा संचालित कोयला खदान परियोजना इन दिनों बड़े विवादों में है। आदिवासी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि यह खदान पूरी तरह से ग़ैरक़ानूनी, पर्यावरण विरोधी और आदिवासी हितों के ख़िलाफ़ है।

बिना अनुमति के चल रहा खनन कार्य

स्थानीय लोगों का कहना है कि इस परियोजना को स्टेज-II फॉरेस्ट क्लियरेंस तक नहीं मिला है और न ही ग्राम सभा की अनुमति ली गई है। जबकि पांचवीं अनुसूची और वनाधिकार अधिनियम (FRA) के तहत आदिवासी समाज की सहमति के बिना कोई भी खनन कार्य वैध नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद बड़ी संख्या में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह सीधे तौर पर PESA कानून का उल्लंघन है।

आदिवासी परिवारों पर दोहरा अन्याय

आदिवासी समुदाय का आरोप है कि उन्हें पहले भी विस्थापन झेलना पड़ा और अब इस नई खदान से उन्हें फिर से उजाड़ा जा रहा है। इससे न सिर्फ़ उनकी ज़मीन छिन रही है बल्कि उनकी रोज़ी-रोटी, दवा, भोजन और आस्था का आधार भी नष्ट हो रहा है। जंगलों से मिलने वाला महुआ, तेंदू पत्ता और औषधीय पौधे उनकी जीवनरेखा हैं, जिन्हें इस खनन से भारी नुकसान होगा।

केंद्र सरकार पर भी उठे सवाल

आंदोलनकारियों का कहना है कि मोदी सरकार ने 2019 में यह खदान परियोजना ऊपर से थोप दी थी और अब 2025 में इसे बिना ज़रूरी मंज़ूरी के ज़बरदस्ती आगे बढ़ाया जा रहा है। उनका मानना है कि यह सिर्फ़ विकास का नहीं, बल्कि विनाश का प्रतीक है।

संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी

धिरौली खदान को लेकर विवाद केवल पर्यावरणीय नहीं है, बल्कि यह संवैधानिक अधिकारों और न्याय से जुड़ा हुआ मुद्दा भी है। आदिवासी कार्यकर्ताओं का कहना है कि यदि इस पर रोक नहीं लगाई गई तो यह देशभर में आदिवासी समाज के लिए एक ख़तरनाक उदाहरण बन जाएगा।

निष्कर्ष

धिरौली कोयला खदान पर बढ़ता विवाद एक बार फिर यह सवाल खड़ा करता है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कैसे कायम किया जाए। आदिवासी समाज का मानना है कि यह परियोजना उनके अधिकारों और अस्तित्व दोनों को ख़तरे में डाल रही है। ऐसे में राज्य और केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वे क़ानून, संविधान और जनभावनाओं के अनुरूप निर्णय लें।

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