
भोपाल । मीडिया पर प्रसारित एक वीडियो ने राजनीतिक और बौद्धिक हलकों में तीखी बहस छेड़ दी है। वीडियो में कांग्रेस विधायक फूल सिंह बरैया द्वारा अधिवक्ता अनिल मिश्रा के लिए “दो कौड़ी का वकील” जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया, जिसे लेकर कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई है। आलोचकों का कहना है कि यह भाषा न तो तर्क पर आधारित है और न ही तथ्यों पर, बल्कि यह वक्ता की कुंठा, बौद्धिक खोखलेपन और स्तरहीन मानसिकता को दर्शाती है। इस पूरे प्रकरण ने न केवल व्यक्तिगत गरिमा, बल्कि इतिहास, संविधान और लोकतांत्रिक विमर्श की गुणवत्ता पर भी गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
अनिल मिश्रा की ओर से कहा गया है कि किसी व्यक्ति को अपमानित करने के लिए इस तरह की भाषा वही अपनाता है, जिसके पास न ठोस तथ्य होते हैं, न तर्क और न ही बौद्धिक साहस। उन्होंने चुनौती देते हुए कहा कि यदि श्री बरैया वास्तव में योग्यता और मेरिट को परखने की हैसियत रखते हैं, तो उन्हें मीडिया बयानबाज़ी छोड़कर उच्च न्यायालय जैसे संवैधानिक मंच पर आना चाहिए, जहां केवल कानून, तथ्य और बुद्धि की कसौटी होती है। वहीं यह तय हो जाएगा कि “दो कौड़ी का” वास्तव में कौन है।
विवाद यहीं तक सीमित नहीं रहा। श्री बरैया द्वारा यह दावा भी किया गया कि सकपाल ने वर्ष 1930 से लगातार पाँच वर्षों तक मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाया। इतिहासकारों और जानकारों के अनुसार यह दावा तथ्यात्मक रूप से गलत है। 1931 से 1935 के बीच सकपाल का सार्वजनिक जीवन राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस, पृथक निर्वाचन मंडल और पूना पैक्ट जैसे मुद्दों पर केंद्रित रहा। आज तक ऐसा कोई प्रमाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ या शोध उपलब्ध नहीं है, जो पाँच वर्षों तक लगातार मंदिर प्रवेश आंदोलन की पुष्टि करता हो। आलोचकों का कहना है कि इतिहास भावनाओं या नारों से नहीं, बल्कि प्रमाणों से लिखा जाता है।
सबसे अधिक आलोचना उस वक्तव्य को लेकर हो रही है, जिसमें सकपाल को पृथ्वी का “सबसे बुद्धिमान व्यक्ति” बताया गया। इसे बौद्धिक रूप से हास्यास्पद और शर्मनाक करार दिया जा रहा है। भारत की बौद्धिक परंपरा ऋषि-मुनियों, वेदों के रचयिताओं, गुरुकुल प्रणाली, आर्यभट्ट, चरक, सुश्रुत जैसे महान मनीषियों और दार्शनिकों से समृद्ध रही है। इन सभी को नकारते हुए इस तरह का दावा करना सीमित सोच और अज्ञान का परिचायक माना जा रहा है।
संविधान पर एकाधिकार का आरोप:
विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय संविधान किसी एक व्यक्ति की देन नहीं है। यह बी. एन. राऊ जैसे संवैधानिक सलाहकारों, ड्राफ्टिंग कमेटी, संविधान सभा के सदस्यों, अनेक विधिवेत्ताओं और अंतरराष्ट्रीय संवैधानिक स्रोतों के संयुक्त प्रयास का परिणाम है। इन तथ्यों को नजरअंदाज कर पूरा श्रेय किसी एक व्यक्ति को देना गैर-जिम्मेदाराना और भ्रामक बताया जा रहा है।
विधानसभा की चुप्पी पर सवाल:
सबसे चिंताजनक पहलू यह रहा कि विधानसभा जैसे संवैधानिक मंच पर दिए गए इस तथ्यहीन और भड़काऊ भाषण के दौरान वहां उपस्थित अन्य विधायक मौन रहे। सवाल उठ रहा है कि क्या तथ्य, इतिहास और संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी चुनिंदा लोगों की ही है, या फिर यह चुप्पी ऐसे बयानों को मौन सहमति प्रदान कर रही है।
आलोचकों ने श्री बरैया से मांग की है कि यदि उनमें साहस और ईमानदारी है तो वे प्रमाणिक दस्तावेज़ों और ऐतिहासिक स्रोतों के साथ संवैधानिक या अकादमिक मंच पर बहस करें। अन्यथा यह माना जाएगा कि उनका उद्देश्य केवल शोर मचाना है, न कि तथ्यों के साथ खड़ा होना।





