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गोहद: विकास नहीं, निष्कासन की पटकथा! बीस वर्षों में सुनियोजित विस्थापन से कराहता नगर

गोहद/भिंड । मध्यप्रदेश के भिंड जिले का ऐतिहासिक नगर गोहद आज विकास के नाम पर हुए फैसलों की भारी कीमत चुका रहा है। बीते करीब बीस वर्षों में जिस तरह एक-एक कर प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक संस्थानों को शहर से बाहर किया गया, उसने गोहद को समृद्ध नगर से पलायनग्रस्त कस्बे में बदल दिया है। यह लेख किसी नागरिक की शिकायत नहीं, बल्कि गोहद के साथ हुए सुनियोजित विस्थापन की चार्जशीट है।

एक समय था जब गोहद जीवंत शहर हुआ करता था। कचहरी शहर में थी तो न्याय आमजन के बीच था, पुलिस थाना भीतर था तो अपराध पर नियंत्रण था, गल्ला मंडी और सब्जी मंडी शहर में थीं तो किसान और व्यापारी का सीधा संवाद था। बाजारों की रौनक आर्थिक समृद्धि का प्रतीक थी।

लेकिन तथाकथित विकास की प्रक्रिया में यह सब बदलता चला गया। पहले कचहरी शहर से बाहर गई, फिर पुलिस थाना हटाया गया। इसके बाद गल्ला मंडी, सब्जी मंडी, अस्पताल, बैंक, बस स्टैंड, जनपद कार्यालय और स्टेडियम—सब एक-एक कर शहर की सीमा से बाहर कर दिए गए। हर बार आश्वासन मिला कि “थोड़ा सब्र रखिए, विकास हो रहा है”, लेकिन यह विकास नहीं, बल्कि नगर को खाली करने की रणनीति साबित हुआ।

आज स्थिति यह है कि गोहद के लगभग 60 प्रतिशत परिवार पलायन कर चुके हैं और करीब 20 प्रतिशत पलायन की तैयारी में हैं। बाजार सूने हैं, दुकानें बंदी की कगार पर हैं, युवा रोज़गार के लिए बाहर जा चुके हैं और बुजुर्ग अकेले पड़ गए हैं। गोहद अब शहर कम, यादों का कब्रिस्तान अधिक लगता है।

हाईवे विकास को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। नागरिकों का कहना है कि वे विकास के विरोधी नहीं हैं, लेकिन यदि विकास का अर्थ शहर की आत्मा को खत्म करना है, तो यह स्वीकार्य नहीं। गोहद को जानबूझकर हाईवे की परछाईं में धकेला जा रहा है, ताकि मूल नगर धीरे-धीरे समाप्त हो जाए।

अब गोहद में ज्ञापन नहीं, सवाल उठ रहे हैं, कचहरी क्यों हटाई गई, मंडियां क्यों उजाड़ी गईं, बाजार क्यों मारे गए और आखिर यह सब किसके फायदे के लिए हुआ? गोहद थका नहीं है, जाग रहा है। जब शहर जागते हैं, तो इतिहास बदलते हैं। यह लेख नहीं, गोहद का शंखनाद है।

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