आतंकवाद, नागरिक साहस और हमारे समाज का आईना एक्स

सिडनी के बॉन्डी बीच पर हुई गोलीबारी ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया। निर्दोष लोगों की जान लेना चाहे किसी भी विचारधारा, राष्ट्र या मजहब के नाम पर हो—वह सीधा-सीधा आतंकवाद है और मानवता पर हमला है।
इस घटना में 12 निर्दोष लोगों की मौत ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा किया कि कट्टर सोच आखिर इंसान को किस हद तक अंधा बना सकती है।

इस हमले में एक बात उल्लेखनीय रही—एक आम ऑस्ट्रेलियाई नागरिक ने जान की परवाह किए बिना हमलावर पर काबू पाया, उसकी बंदूक छीनी और दूसरे हमले को रोकने में निर्णायक भूमिका निभाई।
यह केवल बहादुरी नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी और नागरिक चेतना का उदाहरण है।

अब सवाल भारत को लेकर भी उठता है।
क्या हमारे समाज में ऐसा सामूहिक साहस दिखता है? या हम हर आतंकी घटना के बाद सिर्फ टीवी डिबेट, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और सोशल मीडिया के शोर तक सीमित रह जाते हैं? कई बार स्थिति यह होती है कि मीडिया लाइव कवरेज के नाम पर आतंकियों को अप्रत्यक्ष मंच दे देता है, राजनीतिक दल सुरक्षा से ज्यादा नैरेटिव की चिंता करने लगते हैं, और आम नागरिक या तो भय में सिमट जाता है या तमाशबीन बनकर रह जाता है, यह भी एक कड़वा सच है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन आतंकवादी अपने कृत्यों को वैचारिक या धार्मिक जामा पहनाने की कोशिश जरूर करते हैं। ऐसे में जिम्मेदारी सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों की नहीं, बल्कि समाज की मीडिया की और राजनीतिक नेतृत्व की भी है, ताकि न तो आतंकियों का महिमामंडन हो, न किसी समुदाय को सामूहिक रूप से कटघरे में खड़ा किया जाए, और न ही पीड़ितों की पीड़ा को टीआरपी या वोट में बदला जाए। आतंकवाद से लड़ाई बंदूक से कम और समाज की चेतना से ज्यादा जीती जाती है। और सिडनी की घटना हमें यही सिखाती है, कि जब आम नागरिक डर के आगे खड़ा होता है, तभी आतंक पीछे हटता है।

Exit mobile version