मालेगांव ब्लास्ट केस: 17 साल, 10,800 सबूत, 332 गवाह… फिर भी सभी आरोपी बरी, सवालों के घेरे में देश की न्याय व्यवस्था

सबूत तो बहुत हैं… मगर सच्चाई नहीं दिखी!”  मालेगांव धमाकों पर कोर्ट का फैसला

नई दिल्ली / मुंबई। देश की न्यायिक व्यवस्था और आतंकवाद विरोधी कानूनों की स्थिति पर बड़ा सवाल तब खड़ा हुआ जब 2008 मालेगांव ब्लास्ट केस में 17 साल लंबी जांच, हजारों सबूत, सैकड़ों गवाहों और पाँच अलग-अलग जजों की प्रक्रिया के बाद भी सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया।

केस का संक्षिप्त विवरण:

यह मामला वर्ष  2008 का है ।घटना मालेगांव, महाराष्ट्र में  बम धमाका, हुआ था  जिसमें कई लोगों की जान गई और दर्जनों घायल हुए थे जिसमें  मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित समेत अन्य सात लोगों को आरोपी बनाया गया था। इस मामले को   महाराष्ट्र ATS, बाद में केस NIA को सौंपा गया

17 साल की प्रक्रिया, लेकिन अंत में खाली हाथ
10,800 सबूत कोर्ट में प्रस्तुत किए गए
332 गवाहों की गवाही हुई
400 से अधिक दस्तावेजों और डिजिटल रिकॉर्ड की जांच हुई
5 जजों ने केस की अलग-अलग समय पर सुनवाई की


लेकिन कोर्ट ने अंतिम निर्णय में कहा कि प्रस्तुत साक्ष्य पर्याप्त नहीं हैं… अभियोजन यह सिद्ध नहीं कर पाया कि आरोपी दोषी हैं।”

देश में गूंजते सवाल: आतंकवादी या देशभक्त?

इस फैसले ने आम जनता और सामाजिक विश्लेषकों के बीच एक तीखी बहस छेड़ दी है।
कई लोग पूछ रहे हैं कि अगर 10 हज़ार से ज़्यादा सबूत, सैकड़ों गवाह और सालों की जांच के बाद भी न्याय नहीं मिला, तो फिर ये पूरी प्रक्रिया क्या थी? एक फालतू प्रैक्टिकल फाइल? देश ने सोचा था आतंकवाद से लड़ेंगे, लेकिन अब तो आतंकी ही VIP बनकर बाहर निकल रहे हैं!
क्या जांच एजेंसियां विफल रहीं या राजनीति हावी रही?

इस केस में दो प्रमुख दौर में जांच हुई,  पहले महाराष्ट्र ATS के तहत और फिर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) के तहत। जहाँ ATS ने आरोपियों को आतंकवाद के तहत कठोर धाराओं में घेरा था, वहीं NIA ने बाद में प्रमुख आरोपियों को क्लीन चिट देते हुए अदालत से उनके पक्ष में रुख अपनाने की सिफारिश की।
विशेषज्ञ इसे “राजनीतिक दबाव में जांच एजेंसी के नरम रुख” के रूप में देख रहे हैं।
जनता की प्रतिक्रिया और सोशल मीडिया पर भूचाल, कई नागरिकों ने कोर्ट के फैसले पर गहरी निराशा व्यक्त की है।


न्यायपालिका और लोकतंत्र के लिए चेतावनी?

यह केस केवल एक फैसला नहीं, बल्कि देश की न्याय प्रणाली, जांच एजेंसियों की ईमानदारी, और ‘राष्ट्रवाद’ की व्याख्या पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। क्या अब देशभक्ति के नाम पर आतंकवाद भी छिपाया जा सकता है? क्या “VIP देशभक्तों” के लिए कानून की धाराएँ अलग हैं?

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