उत्तर प्रदेश । संत की आड़ में पाखंड और अपराध का घिनौना खेल खेलने वाले झांगुर बाबा रैकेट का पर्दाफ़ाश करने वाली साहसी दलित युवती आज खुद न्याय के लिए लड़ रही है, लेकिन विडंबना यह है कि वह अकेली लड़ रही है। न कोई पीडीए (पसमांदा दलित अल्पसंख्यक), न कोई रावण सेना, न ही कोई सेल्फ-प्रोक्लेम्ड “दलित चिंतक” या सोशल मीडिया एक्टिविस्ट उसके समर्थन में सामने आया है।
बलात्कार और धर्म परिवर्तन के लिए किया गया मजबूर
प्राप्त जानकारी के अनुसार, यह दलित युवती झांगुर बाबा और उसके गुर्गों के धार्मिक मुखौटे के पीछे छिपे एक पूरे शोषण तंत्र को उजागर करने जा रही थी। लेकिन इस साजिश के भेद खुलने से पहले, उसे ही गैंगरेप का शिकार बनाया गया, और फिर धर्म परिवर्तन के लिए मानसिक और शारीरिक दबाव डाला गया।
यह कोई साधारण आपराधिक मामला नहीं, बल्कि एक ऐसा केस है जहाँ पीड़िता की पहचान, जाति और साहस – तीनों को कुचला गया।
दलित विमर्श का मौन: क्या यह चयनित संवेदनशीलता है?
सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि सोशल मीडिया पर जाति आधारित “न्याय की राजनीति” करने वाले तमाम पेज, यूट्यूबर, दलित लेखक, संस्थाएं — सब इस मामले में चुप हैं।
कहाँ हैं वे लोग जो मामूली FIR पर भी “ब्राह्मणवाद”, “मनुवाद” और “जातीय उत्पीड़न” की गूंज उठाते हैं?
क्या इस युवती की जाति दलित नहीं है?
या अपराधी का वर्ग, धर्म या राजनीतिक पहचान इस चुप्पी की वजह है?
यह मौन चयनात्मक है, और यह न्याय नहीं, एजेंडा को दर्शाता है।
जब दलित बेटी का संघर्ष ‘ट्रेंडिंग’ नहीं बनता
यह वही समाज है जो निर्भया कांड पर एकजुट हो गया था, लेकिन आज एक दलित युवती की अस्मिता, उसकी आस्था और स्वतंत्रता पर हमले को राजनीतिक रूप से ‘अनकंवेनिएंट’ मान कर चुप्पी साधे हुए है।
संपादकीय निष्कर्ष:
“जब न्याय केवल पहचान देखकर तय हो, और आवाज़ें चयनात्मक हों — तो समाज न केवल असंवेदनशील होता है, बल्कि अपराध का मौन साझेदार बन जाता है।” आज इस दलित बेटी को न केवल न्याय की जरूरत है, बल्कि समाज की सच्ची नैतिकता और निष्पक्षता की भी। सवाल केवल अपराध का नहीं है — सवाल यह है कि ‘कौन’ पीड़ित है, और ‘कौन’ चुप है।
झांगुर बाबा रैकेट का पर्दाफाश करने वाली दलित युवती को हवस का शिकार बनाया, धर्म परिवर्तन का दबाव – लेकिन मौन है ‘दलित विमर्श’ की पूरी बिरादरी!
