
क्या आपको पता है कि 2003 में साबरमती जेल के इंचार्ज का तबादला किये जाने पर जेल के 3000 कैदियों ने भूख-हड़ताल कर थी, 6 ने तो अपनी नसें काट ली, इस मांग के साथ कि – हमारा जेलर हमें वापस करो। खूंखार कैदियों को भी प्रेम और दोस्ताना व्यवहार से अपना मुरीद बना लेने वाले इस शख्स का नाम था – IPS संजीव भट्ट !!
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और यही संजीव भट्ट आज उम्रकैद की सजा काट रहा है। जानते हैं किस अभियोग की सजा मिली है? उत्तर है – हिरासत में एक कैदी को मार डालना। है न भद्दा मजाक?
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1990 में आईपीएस संजीव भट्ट को गुजरात के जामनगर में ASP के रूप में प्रथम पोस्टिंग मिली थी, जहां वे ग्रामीण क्षेत्र का प्रभार संभाल रहे थे। तब बिहार में लालू ने आडवाणी की रथयात्रा को रोक उन्हें गिरफ्तार कर लिया था, फलस्वरूप गुजरात में दंगे भड़क उठे। संजीव भट्ट को शहरी क्षेत्र का अतिरिक्त प्रभार देकर दंगा नियंत्रण का भार सौंपा गया। संजीव ने दंगों पर रोक लगाई। तब एक मस्जिद में आग लगाती भीड़ से 133 आरोपियों की गिरफ्तारी भी हुई, जिसमें एक आदमी का नाम था – प्रभुदास वैश्वानी
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गौरतलब है कि दो दिन बाद विधानसभा में विश्वासमत परीक्षण था। सरकार को पटेल विधायकों का समर्थन चाहिए था, तत्कालीन गृहमंत्री भी पटेल समुदाय से आते थे। इस समय पटेलों की नाराजगी मोल लेने का खतरा लेने से बच रही सरकार के गृहमंत्री नरहरि अमीन द्वारा संजीव भट्ट को निर्देश दिया गया कि जो 133 आरोपी गिरफ्तार हुए हैं, जिनमें ज्यादातर पटेल हैं, उन पर टाडा कानून न लगाया जाए। पर तब तक टाडा लगाया जा चुका था।
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संजीव भट्ट अड़ गए कि जब मुस्लिमों पर भी टाडा में कार्यवाही हो रही हैं तो हिन्दू दंगाईयों पर यह कृपा क्यों? आगे जो मुकदमें होंगे, उन्हें आप देखना। इन लोगों का टाडा मैं नहीं हटाऊंगा। ये एक ईमानदार और निष्पक्ष आदमी की रीढ़ की हड्डी थी, जो सत्ता के सामने झुकी नहीं। और हाँ – तब भाजपा की नही, जनता दल की सरकार थी। यहीं से सरकार की आंखों में संजीव खटकने लगे।
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बहरहाल इन आरोपियों को एक दिन की पुलिस हिरासत के बाद एक हफ्ते की ज्यूडिशियल कस्टडी यानी जेल भेज दिया गया। वहां एक हफ्ता रहने के बाद जमानत हुई, उसके 5 दिन बाद प्रभुदास वैश्वानी की एक हॉस्पिटल में मौत हो गयी। ये चूंकि हिंदूवादी नेता था इसलिए पॉलिटिकल कॉन्सपिरेसी बना कर इसकी मौत पर हंगामा किया गया। संजीव भट्ट चूंकि पहले ही सरकार की आंख में खटक रहे थे इसलिए सारा बिल उन पर ही फाड़ दिया गया।
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प्रभुदास को लोकल पुलिस ने अरेस्ट किया था। 200 से ज्यादा गवाहों ने टेस्टिफाई किया कि संजीव भट्ट का इन कैदियों से एक दिन की पुलिस हिरासत के दौरान कोई पर्सनल इंटरेक्शन नहीं हुआ। न मृतक के शरीर पर कोई चोट के निशान थे। पद्मश्री सम्मानित मशहूर डॉक्टर एच.एल त्रिवेदी की रिपोर्ट ने कन्फर्म किया कि मृतक की किडनी फेलियर से मौत हुई, जिसका कारण मारपीट नहीं थी, बल्कि राबडोमायोलिसिस नामक बीमारी थी। बाद में 1995 में स्वयं गुजरात सरकार ने इस मामले को बंद कर दिया।
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उसके बाद 2002 में गुजरात दंगे हुए। संजीव उस समय इंटेलिजेंस प्रमुख थे। उनके पास पुख्ता सबूत थे कि राज्य सरकार ने उस समय राजनीतिक फायदे के लिए दंगों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि बढ़ावा ही दिया। फिर भी संजीव वर्षों तक चुप रहे, गोपनीयता की शपथ जो ली थी। वर्षों बाद मुंह तब खोला, जब मामले में एसआईटी गठित हुई तो उन्होंने अपने ईमान की सुनी और दंगों से जुड़े डॉक्यूमेंट और सबूत सौंप दिए। देना चाहिए भी था, कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति यही करता।
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जिस दिन संजीव ने गवाही दी, उसी शाम इस दशकों पुराने मामले को दोबारा खोल संजीव सस्पेंड हुए। नए सबूत और गवाह पैदा हो गए। एक अन्य 1996 का मामला भी खुला, जो एक वकील ने लोकल पुलिस के खिलाफ अनाधिकृत ड्रग प्लांटिंग के लिए किया था। उसमें भी संजीव लपेटे गए, क्योंकि वे जिले के अधिकारी थे, जबकि मामला लोकल पुलिस पर था। (कहेंगे तो इस पर भी विस्तार से लिख दूंगा)
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सोच कर देखिए कि हालिया वर्षों में संजीव ने सुप्रीम कोर्ट में इतनी भर याचिका लगाई थी कि हमारे मामले की निष्पक्ष पैरवी के लिए अदालती कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग का हुक्म दे दीजिए क्योंकि लोकल जज हमारे सबूतों को दरकिनार कर मनमानी कार्यवाही करता है। एक आईपीएस के इतनी भर याचिका डालने पर मीलॉर्ड ने संजीव पर तीन लाख का जुर्माना लगा दिया, इस टिप्पणी के साथ कि – बार बार कोर्ट आ जाते हो। बहुत पैसा है तुम्हारे पास? चलों, वकीलों का भला करने के लिए ही जुर्माना भरो।
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आखिर इतनी कटुता एक आईपीएस अफसर के लिए क्यों? जबकि गुजरात में ही 2000 से लेकर संजीव की गिरफ्तारी तक 184 कस्टोडियल डेथ हुईं हैं। क्या किसी एक भी अफसर पर भी कार्यवाही हुई है?
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संजीव आज सिर्फ सच बोलने और अपने उसूलों से समझौता न करने के लिए सजा भुगत रहे हैं। पता सबको है, आवाज उठाने की हिम्मत किसी में नही।
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– झकझकिया




