
ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा व्यवस्था की जमीनी हकीकत
भोपाल । मध्यप्रदेश सहित देश के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों की स्थिति और शिक्षा सत्र 2025 को लेकर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। नवीन शिक्षा सत्र अप्रैल में भले ही औपचारिक रूप से शुरू कर दिया जाता हो, लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही बयां करती है। ग्रामीण इलाकों में परीक्षा खत्म होते ही बच्चे स्कूल आना बंद कर देते हैं और कई तो परीक्षा परिणाम लेने भी नहीं आते।
ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की हकीकत यह है कि अप्रैल के महीने में सिर्फ शिक्षक ही विद्यालय पहुंचते हैं। वे पूरे दिन गर्मी में विद्यालय में बैठकर समय बिताते हैं, जबकि छात्र नदारद रहते हैं। यह स्थिति दर्शाती है कि अप्रैल में शिक्षा सत्र की शुरुआत केवल विभागीय औपचारिकता है, जिसका शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं है।
गौरतलब है कि 15 जून से जब सरकारी स्कूल दोबारा खुलते हैं, तब भी बच्चों की उपस्थिति नगण्य रहती है। ज़्यादातर बच्चे जुलाई से ही नियमित स्कूल आना शुरू करते हैं। इसकी एक प्रमुख वजह यह भी है कि अप्रैल-मई के महीनों में ग्रामीण क्षेत्रों में महुआ जैसी जंगली फसल को एकत्रित करने का समय होता है। इस कार्य में परिवार के सभी सदस्य, यहाँ तक कि बच्चे भी, पूरी लगन से शामिल होते हैं।
इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में अगर कोई शादी या सामाजिक आयोजन होता है तो पूरा गांव उसमें सम्मिलित होता है, जिससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति शून्य हो जाती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या अप्रैल नवीन शैक्षणिक सत्र के लिए सही समय है?
शहरी और ग्रामीण स्कूलों की तुलना करना भी एक बड़ी भूल है। ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर स्थानीय रहन-सहन, परंपराएं और मौसम का गहरा असर होता है। जब किसी कक्षा में मात्र 1 या 2 बच्चे उपस्थित होते हैं, तब शिक्षकों के सामने यह दुविधा होती है कि पढ़ाई शुरू करें या नहीं। अगर पढ़ाई शुरू करते हैं तो बाकी बच्चों के आने पर पाठ्यक्रम दोहराना पड़ता है, और यदि नहीं पढ़ाते, तो उपस्थित बच्चे कमजोर रह जाते हैं।
इस परिस्थिति में यह स्पष्ट है कि शिक्षा सत्र अप्रैल से शुरू करने की बजाय जून या जुलाई से शुरू करना अधिक व्यावहारिक होगा। इससे ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था को मजबूती मिलेगी और सरकारी स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति भी सुनिश्चित की जा सकेगी।





