
लेखक: अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार
कुछ लोगों को यह बात ‘छोटी-सी’ लग सकती है, लेकिन इसमें बड़े संकेत छुपे हुए हैं। जो हुआ, उस पर अगर मीडिया जगत और विपक्ष ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त न की होती तो शायद इस घटना को भी तालिबान से मजबूरन की जा रही दोस्ती के कालीन के नीचे सरका दिया जाता। बेशक, दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान की भू राजनीतिक परिस्थिति, उससे हमारे ऐतिहासिक रिश्तों, बदलते वैश्विक समीकरण चलते और भारत के व्यापक अंतरराष्ट्रीय हितों के मद्देनजर तालिबान से कूटनीतिक दोस्ती सही मानी जा सकती है, लेकिन यह दोस्ती उन तालिबानी मूल्यों से कतई नहीं हो सकती, जो मध्ययुगीन और महिलाअों के प्रति दुराग्रह और प्रतिगामी सोच से भरे हैं। जबकि हमारे भारतीय मूल्य लिंग, धर्म अथवा जाति भेद से परे समानता, समता और सभी को न्याय की संवैधानिक गारंटी पर आधारित हैं। भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाकात के बाद अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी ने अपने देश के दिल्ली स्थित दूतावास में जो पहली पत्रकार वार्ता की, उसमें भारतीय महिला पत्रकारों को नहीं बुलाया गया। इस पर बवाल मचना ही था, क्योंकि इसे काबुल सरकार की वर्तमान सोच की संदर्भ में इस घटना को देखा गया। महिला पत्रकारों और और ‘एडिटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया’ ने अफगान दूतावास द्वारा इस लैंगिक भेदभाव की कड़ी आलोचना की। इसके बाद भारत सरकार ने मामले से यह कहकर पल्ला झाड़ा कि उसका इसमें कोई रोल नहीं है। अफगान दूतावास के अंदर क्या होता है, वह वही जानें। जबकि अफगान दूतावास (जो कल तक खुद तालिबान सरकार के खिलाफ था) ने सफाई दी कि भारतीय महिला पत्रकारों को प्रेस कांफ्रेंस से अलग रखने का उसका कोई सुचिंतित इरादा नहीं था। यह पत्रकारवार्ता जल्दबाजी में कुछ पत्रकारों को बुलाकर आयोजित की गई थी। भारत में व्यापक प्रतिक्रिया के बाद रविवार को अफगान दूतावास में दूसरी पत्रकारवार्ता में न केवल महिला पत्रकारों को बुलाया गया, बल्कि उन्हें आगे बिठाया गया। यह संदेश देने की कोशिश थी कि महिला पत्रकारों के मुद्दे पर न तो अफगानिस्तान भारत से और न भारत अफगानिस्तान से रिश्ते बिगाड़ना चाहता है। लेकिन इसका अर्थ नहीं है कि महिलाअों को लेकर तालिबानी सोच में रत्तीभर भी फर्क आया हो।
वैसे यह सवाल राजनीतिक, कूटनीतिक और मीडिया जगत में भी तैर रहा है कि मोदी सरकार कट्टरपंथी तालिबान को इस तरह गले क्यों लगा रही है? क्या यह स्वागत-सत्कार केवल संकट कालीन मजबूरी है, भू-राजनीतिक हालात का अपने ढंग लाभ उठाने की कोशिश है, पाक को कांटे से कांटा निकालने की शैली में सबक सिखाने की कूटनीतिक चाल है या फिर विवशताजनित दोस्ती है? यह सही है कि अमेरिका द्वारा चार साल पहले अफगानिस्तान( और उन तमाम आधुनिक सोच वाले अफगानियों को उनकी किस्मत के भरोसे छोड़कर) से जाने के बाद भारत सरकार ने तालिबानी शासन को मध्ययुगीन बर्बर सोच वाला करार देकर उससे दूरी बना ली थी। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि तालिबान चार साल से अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हैं। उन्होंने वहां कट्टर इस्लामिक शरिया कानून लागू कर रखे हैं, जिससे बहुत से अफगान भी सहमत नहीं है। लेकिन बेबस हैं। उधर अफगानिस्तान अभी भी मानता है कि भारत के साथ उसके ऐतिहासिक रिश्ते हैं। लेकिन इस्लामिक देश होते हुए भी पाकिस्तान पर अफगानों का कभी भरोसा नहीं रहा। उनकी तुलना में भारत ज्यादा विश्वसनीय है। हालांकि भारत ने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को अभी मान्यता नहीं दी है, लेकिन धीरे-धीरे उसी दिशा में बढ़ रहा है। कारण साफ है कि भारत अफगानिस्तान में चीन, पाकिस्तान और रूस के लिए मैदान खुला नहीं छोड़ना चाहता। जो सही भी है, लेकिन तालिबान से दोस्ती हो, लेकिन तालिबानों मूल्यों से न हो। अफगान दूतावास की घटना तो केवल खतरे की घंटी भर है। अपनी पहली आधिकारिक यात्रा में विदेश मंत्री मुत्तकी ने भारत के सहयोग पर जोर दिया। यह सलाह भी दी िक भारत, पाक के साथ वाघा बाॅर्डर को खोले ताकि अफगानिस्तान से माल आसानी से भारत भेजा जा सके। यहां तक तो ठीक, लेकिन मुत्तकी िद्ल्ली के अलावा और कहीं गए तो वह था- दारूल उलूम देवबंद। यह इस्लामी के सुन्नी इस्लामी शिक्षा का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा केन्द्र हैं, जहां करीब 4 हजार छात्र धार्मिक शिक्षा प्राप्त करते हैं। जिनमें कुछ विदेशी छात्र भी हैं। दारूल उलूम 1 से 5 वर्ष तक के अलग अलग पाठ्यक्रम संचालित करता है, कुरान, हदीस, नबूवत, अरबी, उर्दू भाषा के अलावा साहित्य और विज्ञान भी शामिल है। शिक्षा का माध्यम उर्दू है। मुख्य जोर दीनी तालीम पर ही है। इस संस्था की स्थापना भारत में मुगल सत्ता के पूर्ण अवसान के बाद हजरत मौलाना मोहम्मद कासिम नानोतवी और हाजी मोहम्मद ने की थी। उसका उद्देश्य भारत में गौरवपूर्ण मुस्लिम शासन की परंपरा को सहेजे रखना और इस्लामिक विचार और जीवनशैली का संवर्द्धन करना था। संस्था का संचालन मजलिसे शूरा करती है और इसके प्रमुख मोहतमिम कहलाते हैं। वर्तमान में इसके प्रधानाचार्य मौलाना अर्शद मदनी हैं। 84 वर्षीय मदनी रूढि़वादी जमीयत उलेमा-ए-हिंद के भी अध्यक्ष हैं।
यूं भारत में इस्लामिक शिक्षा देने वाले अौर भी केन्द्र हैं। लेकिन विदेश मंत्री मुत्तकी ने देवबंद का ही चयन क्यों किया? मुस्लिम देशों से आने वाले राष्ट्राध्यक्ष अथवा राजनयिक अमूमन धार्मिक शिक्षा संस्थानों में नहीं जाते। वो ज्यादातर राजनेताअोंसे या सामाजिक संगठनों से िमलते हैं। लेकिन मुत्तकी का दौरा देवबंद जाने के कारण ज्यादा चर्चित हुआ। हो सकता है, इस बहाने वो अपने देश में भी अपनी गहरी इस्लामिक आस्था और उसके सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता का संदेश देना चाहते हों। दारूल उलूम इस्लामिक शिक्षा का केन्द्र भले हो, लेकिन महिलाअों को लेकर उनकी सोच भी तकरीबन वही है, जो मुत्तकी की है। दारूल उलूम में केवल पुरूष विद्यार्थियों को प्रवेश मिलता है। महिलाअों को नहीं। इसको लेकर खुद मु्स्लिम समाज में होने वाली आलोचना के चलते पिछले साल दारूल उलूम प्रबंधन ने महिलाअोंको संस्थान में केवल भ्रमण की इजाजत दे दी है। लेकिन वह भी हिजाब और पर्दादारी के साथ। पढ़ने-पढ़ाने का तो सवाल ही नहीं है।
मुत्तकी को देखने और उन्हें छूने के लिए दारूल उलूम में छात्रों की जो भीड़ उमड़ी, उससे यह संदेश गया कि उनकी सोच भी तालिबान से मिलती है। यही चिंता का विषय है। मुत्तकी, संस्था प्रमुख मौलाना मदनी से मिले। बाद में मदनी ने इस मुलाकात के बारे में बयान दिया कि मुत्तकी ने भरोसा दिलाया है िक अफगानिस्तान आतंकियों को भारत के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा।
उधर भारत में कड़ी आलोचना के बाद अफगान विदेश मंत्री ने महिला पत्रकारों को लेकर अपनी सोच से थोड़ा समझौता िकया, लेकिन खुद अफगानिस्तान में आज महिलाएं एक सदी पीछे चली गईं हैं। वहां महिला पत्रकार खुलकर कह भी नहीं सकती कि वो पत्रकार हैं। अफगान नेशनल जर्नलिस्ट यूनियन दवारा पूर्व में कराए गए एक सर्वे के अनुसार तालिबान शासन में 87 फीसदी महिलाअों के साथ लैंगिक भेदभाव हो रहा है। 60 फीसदी महिलाअों ने अपनी नौकरियां गंवा दी हैं।
इनमें से 91 फीसदी महिला पत्रकार ऐसी थीं, जो अपने परिवार में अकेली कमाने वाली थीं। तालिबान शासन द्वारा इतने भयंकर दमन के बावजूद बताया जाता है कि कुछ महिला पत्रकार साहस के साथ अभी भी किसी तरह अपना काम कर रही हैं। 2021 में जब अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता में आए, उस वक्त देश में 1400 महिला पत्रकार काम कर रही थीं। 2023 में इनकी संख्या 400 रह गई। हालांकि बताया जाता है कि 2024 में इनकी संख्या बढ़कर 600 हो गई है। लेकिन काम करने की परिस्थितियां बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण हैं। उन पर बहुत सारे प्रतिबंध हैं। अफगानिस्तान की एक जानी-मानी पत्रकार और ‘रूखशाना’ की संपादक जहरा जोया के मुताबिक वे इसलिए काम रही हैं, क्योंकि पत्रकारिता उनके लिए मिशन हैं और वो अफगानिस्तान में महिलाअों की दुर्दशा को दुनिया के सामने ला रही हैं। जहरा आजकल लंदन में रहती हैं।
पत्रकारिता तो दूर महिलाअो के अन्य क्षेत्रों में काम करने लेकर भी तालिबान की सोच नकारात्मक है। तीन साल पहले पाकिस्तान की तत्कालीन विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार जब बिना हिजाब के अफगानिस्तान के तालिबान शासको से काबुल जाकर मिलीं तो कट्टरपंथियों ने काफी हल्ला मचाया था। लेकिन हिना ने इसकी परवाह नहीं और अफगान शासकों से वैसे ही हाथ मिलाया और बातचीत की।
तालिबान सरकार ने अपने देश में सभी महिलाअों को बुर्के में रहना अनिवार्य कर छठी से आगे पढ़ने पर रोक लगा दी है। तालिबान की नजर में महिलाअों का काम सिर्फ बच्चे पैदा करना और दीनी इबादत करने में जिंदगी गुजारना है। यहां तक कि सजने संवरने, गाने-बजाने तक को इस्लाम विरोधी करार दे दिया गया है। यह सब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ‘बेटी पढ़ाअों, बेटी बचाअो’ सोच के ठीक विपरीत है। हालत यह है िक कुछ साल पहले तक जिस अफगानिस्तान की महिला िक्रकेट टीम टूर्नामेंटों में उतरती थी, वो आज आॅस्ट्रेलिया में शरण लिए हुए है और जिसे महिला वन डे वर्ल्ड कप में विशेष दर्शक के रूप में आमंत्रित किया गया है। प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन के अनुसार तालिबान के लिए महिलाएं इंसान ही नहीं हैं। वैश्विक हालात और दक्षिण एशिया के राजनीतिक गणित के चलते भारत सरकार तालिबानियों से रिश्ते रखे, लेकिन उन प्रतिगामी मूल्यों को कतई बर्दाश्त न करे, जो हमारे मूल्यो के खिलाफ हो। भारत में इसकी कोई जगह नहीं है।