Opinion

दो संगठन, एक सदी-1
‘राष्ट्र’ व ‘जन’ केन्द्रित विचारों का सौ साला सफर और परिणति…


लेखक : अजय बोकिल वरिष्ठ पत्रकार
इस साल राष्ट्रवादी सोच और हिंदुत्व का पैरोकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही अपनी स्थापना की शताब्दी नहीं मना रहा है, बल्कि उसी के समानांतर ‘जन’ वादी सोच और साम्यवादी विचार के आधार पर समाज को बदल डालने का सपना पालने वाली ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) भी अपनी संस्थापना की एक सदी पूरी कर रही है। हालांकि संघ एक सांस्कृतिक सामाजिक एनजीअो है और सीपीआई पूरी तरह एक राजनीतिक दल है। दोनो की शुरूआत दो अलग-अलग चश्मों से सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के सपनों के साथ हुई थी। दोनो ने इन सौ सालो में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। लेकिन संघ बहुसंख्यक हिंदुअों के वर्चस्व की सामाजिक-राजनीतिक पैरोकारी और पहरेदारी करके अपनी राजनीतिक शाखा भाजपा के माध्यम से आज सत्ता शीर्ष पर पहुंच गया है। आज वो देश में एक‍ निर्णायक शक्ति है, भले ही उसकी विचारधारा और कार्यशैली से कुछ लोग असहमत हों। जबकि सीपीआई जो 61 साल पहले वैचारिक झुकावों के चलते दो फाड़ हो गई थी, आज अपने वजूद को बचाने की यथा संभव कोशिश कर रही है। ऐसा क्यों हुआ, इस पर गंभीर विचार जरूरी है। क्योंकि संघ जहां सदा ‘राष्ट्र सर्वोपरि’  की बात करता रहा है, वहीं सीपीआई अर्थात वामपंथी हमेशा ‘जन’ को प्राथमिकता देते रहे हैं। उनका अपना आर्थिक दर्शन है और राष्ट्र की तुलना में ‘अंतरराष्ट्र’ उन्हें ज्यादा ‍प्रिय है। फिर भी संघ और सीपीआई की विचारधाराएं अगर विपरीत हैं तो इसके पीछे एप्रोच और मानसिकता का भी फर्क है। संघ के आग्रह के पीछे अनुभव जन्य भावुकता, आशंका और हिंदू समाज तथा प्रकारांतर से भारत राष्ट्र के अस्तित्व की चिंता है तो वामंपथियों का मानना है कि यदि ‘जन’ ही सुखी नहीं है तो राष्ट्र का महिमागान खुद को धोखा देने जैसा है। इसमें यह तय करना मुश्किल है कि पहले अंडा या मुर्गी। क्योंकि ‘राष्ट्र’ सुरक्षित समृद्ध नहीं होगा तो उसके ‘जन’ भी सुखी  कैसे रहेंगे? संघ मानता है कि वामपंथी विचार पश्चिम से आयातित है और उसकी प्राथमिकताएं भारतीय समाज के अनुकूल न होकर पश्चिमी समाज के हिसाब से हैं, जबकि वामियों का तर्क है कि संघ जो सोचता और करता है वह प्रतिगामी, पुरातनपंथी और देश के बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी स्वभाव के विरूद्ध है। संघ का मानना है कि बेशक यह देश बहुसांस्कृतिक बहुभाषी, बहुजातीय है, लेकिन इसका मूल स्वर और चरि‍त्र हिंदू ही है। इसे नाम चाहे भारतीय या कुछ और दे दें। इस हिसाब से हिंदू केवल एक धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान ही नहीं है, वह वह बहुसंख्यकों की राजनीतिक अस्मिता का द्योतक भी है। संघ का स्पष्ट मानना है कि जब तक भारत में हिंदू मजबूत है, भारत और उसकी सांस्कृतिक पहचान अक्षुण्ण है। जब- जब हिंदू कमजोर हुआ है, भारत खंडित हुआ है, भले ही उसके तात्कालिक कारण कुछ भी हों। इसके विपरीत वामपंथियों की सोच है कि भारत के विखंडन की बात केवल हिंदुअोंके मन में भय पैदा करने और उनकी जमीनी दुश्वारियों एवं वास्तविक अंतर्विरोधों से ध्यान हटाने की कोशिश है।
वैसे संघ और वामियों में कुछ समानता भी है। पहला तो ये कि दोनो का सफर लगभग आसपास ही शुरू हुआ। संघ की स्थापना 27 अक्टूबर 1925 को विजयादशमी के दिन नागपुर में हुई तो सीपीआई की स्‍थापना कानपुर अधिवेशन में 26 दिसंबर 1925 को की गई। यानी दो वैचारिक आंदोलन लगभग एक साथ शुरू हुए। दोनो ही देश की तत्कालीन राजनीतिक मुख्‍य धारा कांग्रेस की कार्यशैली से अलग सोच रखते थे। सीपीआई की स्थापना के पीछे 1917 में रूस में हुई सोवियत क्रांति की प्रेरणा थी तो संघ के आरंभ के पीछे प्रथम‍ विश्वयुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय शक्तियो के ध्रुवीकरण और कांग्रेस के ज्यादा मुस्लिमपरस्त होने से उपजी नाराजी बड़ा कारण था। चूंकि उस वक्त भारत पर ब्रिटिश शासन था, इसलिए दोनो का ही सफर आसान नहीं था। उसमें भी कम्युनिस्टों को अंग्रेज दुश्मन नंबर वन मानते थे। तब वामपंथियों का मानना था कि इस देश में क्रांति केवल सशस्त्र विद्रोह से ही आ सकती है। क्रांति की राह में धर्म की कोई भूमिका नहीं है। जबकि संघ का मानना था कि आजादी तो देर सवेर मिलेगी ही, हमे उसकी सुरक्षा के बारे में भी अभी से सोचना चाहिए। स्वतंत्र देश में हिंदुअोंका वर्चस्व  होना चाहिए। जिन परिस्थितियों और जिस रूप  में भारत को आजादी मिली, उससे दोनो ही खुश नहीं थे, लेकिन बाद में दोनो ने भारत में संवैधानिक बहुदलीय लोकतंत्र को स्वीकार कर लिया।।
अपनी वैचारिक सोच के मुताबिक आजादी के तत्काल बाद कम्युनिस्टों ने तेलंगाना में जमींदारों के खिलाफ पहला सशस्त्र विद्रोह किया, जिसे कुचल दिया गया। सीपीआई तो बाद में मुख्य धारा में शामिल हो गई, लेकिन उसके अनुषांगिक संगठन अभी भी  किसी न किसी रूप में सशस्त्र और हिंसक गतिविधियां संचालित करते रहते हैं।  
अब संघर्ष और विस्तार के सौ सालों बाद दोनो की तुलनात्मक स्थिति पर नजर डालें कि कौन कहां खड़ा है? हालांकि इसका मकसद कोई अंतिम फैसला देना नहीं है, केवल जमीनी सच्चाई का आकलन है। पहले आरएसएस की बात। इसकी स्थापना डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की। हेडगेवार पहले कांग्रेस में ही थे। लेकिन गांधीजी के मुस्लिम प्रेम के कारण उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होंने पश्चिम में उभरते राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर एक नए संगठन आरएसएस की नींव रखी। जिसका लक्ष्य हिंदू संस्कृति, धर्म और परंपराअोंकी रक्षा और इसे ही भारत का मूल चरित्र आधार मानना था। संघ का स्पष्ट मत है कि भले ही भारत बहुसांस्क‍ृतिक, बहुभाषी देश हो, लेकिन उसकी आत्मा हिंदुत्व में बसती है। हिंदू होना और हिंदुत्व में विश्वास करना ही इस भारत देश की एकता और अखंडता की गारंटी है। संघ के वर्तमान सरसंघचालक डाॅ.मोहन भागवत के अनुसार हमारे रंग रूप, भाषा, पूजा पद्धतियां अलग अलग हों, लेकिन डीएनए एक है। क्योंकि हिंदू धर्म इसी माटी से जन्मा, फला-फूला, भले ही उसमे से दार्शनिक विरोधों के कारण कई शाखाएं फूटीं, लेकिन जो वैदिक काल से जो आज तक कायम है, वह सनातन है। इस मायने में संघ की विचारधारा वीर सावरकर की उस थ्योरी कि हिंदू वह है, जिसकी पुण्यभूमि भी भारत है, से काफी मेल खाती है। इस विचार की भले-बुरे दृष्टिकोणों से बहस होती रही है, आगे भी होती रहेगी।

दूसरी तरफ वामपंथी आरएसएस और प्रकारांतर से सावरकर की विचारधारा को फासीवादी, प्रतिगामी और समाजभंजक मानते हैं। इसलिए वो शुरू से ही इसका विरोध करते आ रहे हैं। जबकि संघ अपनी धुन में अपना काम करता चला आ रहा है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत के सामाजिक राजनीतिक नक्शे में एक प्रभावी और निर्णायक भूमिका है। इसका नेटवर्क पूरे भारत और विदेशों में भी है। संघ का मुख्‍य लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना है। संघ का मानना  है कि ‍केवल हिंदू संस्कृति से भी भारतीयता की पहचान हो सकती है। संघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता है। यह तभी संभव है, जब भारतीय संस्कृति और सभ्यता के मूल्यों को बढ़ावा दिया जाए। संघ का मुख्‍य मिशन चरित्र निर्माण है। इसके कार्यकर्ता स्वयंसेवक कहलाते हैं। संघ का विश्वास सर्वांगीण उन्नति में है। हालांकि संघ पर भी आरोप है ‍िक आजादी के आंदोलन में उसकी कोई भूमिका नहीं थी। वो अंग्रजों के साथ था और कुछ साल पहले तक स्वतंत्रता दिवस पर संघ के नागपुर स्थित मुख्‍यालय में तिरंगा नहीं फहराया जाता था। हालांकि संघ इसका खंडन करता रहा है।
संगठनातत्मक दृष्टि से देखें तो संघ की बुनियादी इकाई शाखा है। आज पूरे देश भर में संघ की 83 हजार 129 शाखाएं हैं। हालांकि संघ का लक्ष्य देश के हर गांव में एक शाखा का यानी साढ़े सात लाख शाखाएं प्रारंभ करने का है। संघ की अनुषांगिक संस्थाएं समाज के लगभग सभी क्षेत्र में काम करती हैं। इन सबको मिलाकर संघ परिवार कहलाता है। संघ कई सामाजिक संस्थाएं संचालित करता है। समाज सेवा संघ का प्रमुख उद्देश्य है। राजनीतिक क्षे‍त्र में उसका हस्तक्षेप भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से है। आज भाजपा के देश में कुल 342 सांसद और सभी राज्यों में 4131 विधायक हैं। वह देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है और 21 राज्यों में या तो उसकी सत्ता है या सत्ता में वह सहभागी है। अब सीपीआई की बात करें तो जातीय अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली सीपीआई को पार्टी के भीतर सामाजिक न्याय लागू करने में भी लंबा वक्त लगा। वर्तमान में पार्टी के महासचिव डी. राजा हैं, जो दलित हैं और तमिलनाडु से आते हैं। सीपीआई अब एक क्षेत्रीय पार्टी है। देश भर में उसकी सदस्य संख्या करीब साढ़े 6 लाख से ज्यादा बताई जाती है। पार्टी का मूल उद्देश्य और नीतियां कमोबेश अभी भी वही हैं, जो सौ साल पहले थे। मसलन सम्पत्ति का समान बंटवारा, संपूर्ण भूमि सुधार, श्रमिक अधिकारों को बढ़ावा, सामाजिक सुरक्षा, निजी और विदेशी पूंजी का विरोध, सभी प्रमुख उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, भारत में संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से समाजवाद की स्थापना, धर्म के राजनीतिक उपयोग का विरोध तथा जातीय समानता का समर्थन। हाल में चंडीगढ़ में हुई पार्टी कांग्रेस में सीपीआई पाकिस्तान के साथ भारत के व्यापारिक रिश्तों को ‍िफर से बहाल करने की पैरवी करते हुए यूएपीए जैसे कानूनो को समाप्त करने की मांग की। पार्टी ने केन्द्र में मोदी सरकार और आरएसएस की हिंदुत्ववादी नीतियों की कड़ी आलोचना करते हुए आरोप लगाया कि मोदी सरकार आरएसएस के इतिहास और साम्प्रदायिक दंगों में भूमिका को लेकर जनता की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास कर रही है। पार्टी ने भारत में संघवाद (आरएसएस नहीं) को बचाने, संविधान की रक्षा, ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का भी विरोध किया।
पार्टी ने शताब्दी वर्ष में आह्वान किया कि यह वर्ष केवल अतीत की याद भर नहीं है, बल्कि भविष्य  के आह्वान को भी स्वीकार करना है। फासीवाद के खिलाफ जनता का प्रतिरोध,संविधान की रक्षा, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य,भोजन, आवास, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र, और समाजवाद पर आधारित भारत का निर्माण का हमारा संकल्प है। साहस और एकता के साथ हम आगे बढ़ेंगे।
अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष जश्न, जिसकी शुरूआत पिछले साल से ही हो चुकी हैं,  में सीपीआई का मुख्‍य जोर अपनी क्रांतिकारी विरासत को आगे बढ़ाने, आरएसएस का तीव्र विरोध और स्वतंत्रता संग्राम में भाकपा की भूमिका को रेखांकित करने पर है। पार्टी को पूरा भरोसा है कि भारत का भविष्य उसके हाथ में है। अपने स्थापना दिवस पर पार्टी ने कानपुर में नया लोगो जारी किया। आजादी  के आंदोलन के समय भारतीय कम्युनिस्ट (कांग्रेस के) ‘ राष्ट्रीय सुधारवादी नेताअों के खिलाफ थे। कांग्रेस ने तब कम्युनिस्टों के इस रवैये की आलोचना  की थी। इस बीच देश के कम्युनिस्ट आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा था। 1933 में पार्टी का पुनर्गठन किया गया। इसका असर कांग्रेस में भी दिखा और वहां भी पार्टी के भीतर ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ नामक लेफ्ट विंग बनी। हालांकि सीपीआई ने इसकी ‘सोशल फासिस्ट’ कहकर आलोचना की। आज भले कम्युनिस्ट गांधी के पैरोकारी कर रहे हों, लेकिन 1934 में ही कलकत्ता में भूमिगत कम्युनिस्टों ने ‘लीग अगेंस्ट गांधीज्म’ का गठन किया था। 1936 में समाजवादी और कम्युनिस्ट करीब आने लगे। सीपीआई ने ने 1946 में सीपीआई ने प्रांतीय एसेम्बलियों का चुनाव लड़ा और 8 सीटें जीतीं। लेकिन उन्होंने भारत के बंटवारे का खुलकर विरोध किया और विरोध स्वरूप 13 अगस्त 1947 के पहले स्वतंत्रता समारोह का बहिष्कार किया। उसी दौरान कम्युनिस्टों ने तेलंगाना  में जमींदारों  के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया, जिसे सख्‍ती से कुचल दिया गया। आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने रणनीति बदली और 1948 में दूसरी पार्टी कांग्रेसमें देश में ‘प्रजातां‍‍त्रिक क्रांति’ का कार्यक्रम स्वीकार किया गया। 1951 में पार्टी ने अपने नारे में एक और बदलाव करते हुए इसे ‘जन लोकतंत्र से राष्ट्रीय लोकतंत्र’ में बदल दिया। नतीजा यह हुआ कि 1951-52 के पहले आम चुनाव में सीपीआई 16 सीटें जीतकर मुख्‍य विरोधी दल के रूप में उभरी। (क्रमश:)

( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 7 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित)

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