त्वरित टिप्पणी
लेखक : अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार
बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की सुनामी के मूल में मुख्य रूप से तीन कारण हैं मोदी मैजिक, निश्चय नीतीश और कुशल चु्नाव मैनेजमेंट। इस चुनाव में प्रतिद्ंवद्वी महागठबंधन की दयनीय पराजय इस बात का अलार्म है कि विपक्ष को अपनी रणनीति, चुनाव प्रबंधन और जनता की नब्ज पकड़ने वाले राजनीतिक आॅक्सीमीटर पर नए सिरे से विचार करना होगा। बिहार के नतीजों ने यह भी साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया और चंद बुद्धिजीवियों द्वारा बनाई नकली हवा को ‘मायासभा’ मानकर की जाने वाली राजनीति का परिणाम यही होता है। विपक्षी नेता यह मान बैठे थे कि ‘वोट चोरी’, करोड़ों नौकरियां देने, पलायन रोकने, वक्फ कानून फाड़ देने जैसी असंवैधानिक बातें करके और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा चुनाव आयोग को गाली देकर चुनाव जीत लेंगे। लेकिन अपने वोट डलवाने के लिए सुव्यवस्थित चुनाव प्रबंधन और जनता का भरोसा चाहिए। एनडीए जिस बम्पर जीत की पताका फहरा रहा है, वह बिहार में 2010 के विधानसभा चुनाव नतीजों को दोहराने जैसा है। लेकिन ताजा जीत उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि इस बार 20 साल की एंटी एनकम्बेंसी को मात देकर यह जीत हासिल हुई है।
बिहार में एनडीए की यह विजय आरंभिक आंतरिक विवादों, मनमुटावों आशंकाअों के बावजूद मतदान की तारीख आते आते एक समन्वित, सामंजस्यपूर्ण और निश्चित लक्ष्य के साथ किए गए चुनाव प्रचार की भी जीत है। चुनाव की घोषणा से पहले जीत की जमीन लक्षित मतदाता समूहों को ध्यान में रखकर की गई लोक लुभावन योजनाअों की घोषणाअों और उन पर अमल (जिसे आम बोलचाल में रेवड़ी कहा जाता है) से तैयार की गई। मतदाताअों में यह विश्वास पैदा किया गया िक आर्थिक सशक्तिकरण के नाम पर सौगातों की यह बारिश सत्ता में वापसी के बाद भी जारी रहेगी। फिर चाहे वह डेढ़ करोड़ महिलाअों के खाते में 10 हजार रू. नकद हों, गरीबों को घर हों, गांव में बिजली हो, बेरोजगार ग्रेजुएटों को दो साल तक 1 हजार रू. प्रतिमाह भत्ता हो या फिर दिव्यांगों, बुजुर्गों, निराश्रितों की पेंशन बढ़ाकर लगभग तिगुनी करना हो, लोगों के आर्थिक सशक्तिकरण की ये बारूदी सुरंगें थीं, जो चुनाव के पहले बड़ी चतुराई से बिछा दी गई थीं। उन्हीं का विस्फोट प्रचंड जनादेश के रूप में 14 नवंबर को हुआ। इसके अलावा लालू प्रसाद यादव के समय के ‘जंगलराज’ को बार बार याद दिलाया गया। बिहार की जनता अराजकता के उस दौर में नहीं लौटना चाहती थी। इन तमाम उपायों ने नीतीश सरकार के प्रति एंटी इनकम्बेंसी को प्रो-इनकम्बेंसी में बदल दिया। ऐसा नहीं है िक इसकी काट के रूप में महागठबंधन ने कुछ नहीं किया। महागठबंधन के सबसे बड़े घटक राजद के नेता और मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव ने इतनी बड़ी’बड़ी और हवाईे घोषणाएं कर डालीं कि खुद घोषणाअोंका खुद पर से भरोसा उठने लगा। अमूमन ऐसी घोषणाएं राजनीतिक दल तभी करते हैं, जब भीतर उन्हें यकीन हो कि वो सत्ता में नहीं आने वाले, यानी रात गई, बात गई। चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दो बड़े फैक्टर थे। दोनो ने अपने वोट बैंक को न केवल सहेजे रखा, बल्कि उसमें भारी इजाफा भी किया। मोदी की अपील तो हर वर्ग में है, जबकि नीतीश ने साबित किया कि अति पिछड़ों और महिलाअों में उनकी पैठ को कोई चुनौती नहीं दे सकता।
बेशक विपक्ष बिहार में एकदम बैक फुट पर नहीं खेल रहा था। लेकिन सत्ता में आने का अतिआत्मविश्वास, लेकिन घटक दलों में परस्पर अविश्वास, शुरू से लेकर अंत तक समन्वय का अभाव उसकी लुटिया डुबो गया। मसलन तेजस्वी तब तक चुनाव प्रचार में नहीं उतरे, जब तक कि उन्हें सीएम पद का दावेदार घोषित नहीं करवा लिया गया। कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी चुनाव ऐलान के एक माह पूर्व ‘वोट चोरी’ मुद्दा उठाकर सियासी तवा गरम कर गए, लेकिन बाद में सही वक्त पर रोटी पलटने के लिए नहीं आए। हालांकि प्रचार के दौरान उन्होंने मछली पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वो भी हाथ से फिसल गईं। उधर उपमुख्यमंत्री बनने को बेताब और पिछले साल तेजस्वी यादव के साथ नवरात्रि में मछली खाने का वीडियो जारी करने वाले मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम बनाने के ऐलान ने भी पूरे महागठबंधन की लुटिया डुबोई। इसका पूरा फायदा असदुद्दीन अोवैसी ने उठाया। उन्होंने सवाल किया कि दो परसेंटवाला वोट वाला अगर डिप्टी सीएम घोषित हो सकता है तो 18 प्रतिशत मुस्लिम वोट में क्या राजद को एक भी व्यक्ति उपमुख्यमंत्री पद के काबिल नजर नहीं आया?
इस बार चुनाव में 10 फीसदी ज्यादा वोट पड़ने के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि यह किस के पक्ष में जाएगा ? ज्यादा वोटिंग को अपने पक्ष में मानकर महागठबंधन ने शपथ ग्रहण की तैयारी भी कर ली थी। लेकिन जैसे ही नतीजे विपरीत आने शुरू हुए, चुनाव आयोग को कोसा जाने लगा। वैसे यह पहले से तय था कि अगर विपक्षी गठबंधन जीता तो इसे मोदी और नीतीश की हार तथा चुनाव आयोग द्वारा विपक्ष को हराने की कथित कोशिशों को नाकाम करना बताया जाएगा। और हारे तो ईवीएम, चुनाव आयोग और एसआईआर पर ठीकरा फोड़ा जाएगा। उसकी शुरूआत हो चुकी है।
बिहार चुनाव नतीजों ने पारंपरिक मान्यताअों को भी तोड़ा है। ये शायद पहली बार है, जब बिहार में जातीय गोलबंदी पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हावी हुआ है। योगी आदित्यनाथ ने जिन 43 सीटों पर चुनाव प्रचार किया, भाजपा उनमें से 32 सीटें जीत रही है। राजद, कांग्रेस और वामदल मुसलमानों के वोट बैंक को अपनी एफडी मानते आए हैं, उसमें अोवैसी ने सेंध लगा दी है और मुसलमानों में यह सोच गहराया है कि उनका अपना भी कोई नेता होना चाहिए। इसी तरह राजद का यादव वोट भी दरका है। मप्र के मुख्यमंत्री डाॅ. मोहन यादव को यह महती जिम्मेदारी दी गई थी। उन्होंने जिन यादव बहुल 26 सीटों पर प्रचार किया, उनमें से ज्यादातर भाजपा के खाते में गई हैं। खास बात यह भी थी कि भाजपा नेताओं ने एनडीए के दूसरे दलों के प्रत्याशियों के लिए भी प्रचार कियाl राजद के एमवाय समीकरण की जगह महिला यूथ का एक नया समीकरण उभरा है, जिसने एनडीए की जीत में अहम भूमिका नहीं निभाई। जिन प्रशांत किशोर को बड़ा खिलाड़ी माना जा रहा था, लगता है उन्हें अब फिर से अपने धंधे में लौटना पड़ेगा। यानी चुनावी रणनीतिकार खुद भी चुनाव जीते जरूरी नहीं है।
यह लगभग तय है कि नीतीश कुमार फिर दसवीं बार सीएम होंगे। इसका कारण उनकी लोकप्रियता तो है ही, केन्द्र की एनडीए सरकार की मजबूती के लिए भी उनके समर्थन की जरूरत है। इन नतीजों का असर दूसरे राज्यों पर भी दिखाई देगा। विपक्षी नेता सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहें लेकिन पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ‘एसआईआर’ का मुद्दा उन्हें चुनाव नहीं जितवा पाएगा। अलबत्ता सभी सत्तारूढ़ पार्टियां रेवड़ी कल्चर को तेजी से अपनाएंगीं ताकि मतदाता का भरोसा जीता जा सके। इस चुनाव के बाद एनडीए का आत्मविश्वास और बढ़ेगा तथा राज्य सभा में भी उसकी ताकत बढ़ेगी।
( ‘ सुबह सवेरे’ में दि. 15 नवंबर 2025 को प्रकाशित)
