सर्वोच्च न्यायालय में हाल ही में हुई ‘जूते वाली घटना’ के विरोध प्रदर्शन ने देशभर में संवैधानिक बहस को फिर से जगा दिया है। सोशल मीडिया से मिली जानकारी अनुसार जहां इस प्रदर्शन में केवल 5 वकील पहुंचे, वहीं 40 पुलिसकर्मी और 20 पत्रकारों की मौजूदगी ने यह संकेत दिया कि मामला केवल न्यायपालिका से जुड़ा नहीं, बल्कि संविधान की मूल भावना पर भी सवाल खड़े कर रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय परिसर में ‘जूते वाली घटना’ के विरोध में आयोजित प्रदर्शन ने कई राजनीतिक और संवैधानिक प्रश्नों को जन्म दिया है। देश की सर्वोच्च अदालत, जहां करीब 25 से 30 हजार वकील नियमित रूप से प्रैक्टिस करते हैं, वहां इस गंभीर मुद्दे पर केवल 5 वकीलों का पहुंचना विचारणीय स्थिति उत्पन्न करता है। यह न केवल घटना के विरोध की कमजोर प्रतिक्रिया दर्शाता है, बल्कि इस बात का भी संकेत है कि विरोध प्रदर्शन संविधान की मूल भावना के विपरीत माना जा रहा है।
राजनीतिक दलों द्वारा बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को “संविधान निर्माता” घोषित करने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि संविधान का निर्माण 284 सदस्यों की समिति ने मिलकर किया था, जिसे अक्सर भुला दिया जाता है। अगर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद को श्रेय दिया जाता या सभी सदस्यों के नाम समान रूप से शामिल किए जाते, तो यह विवाद शायद कभी जन्म ही नहीं लेता।
इतिहासकारों का मानना है कि डॉ. अंबेडकर का योगदान निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण था, परंतु उन्हें “एकमात्र संविधान निर्माता” घोषित करना अन्य सदस्यों के योगदान को नकारने जैसा है। संसद चाहे तो संविधान में संशोधन करके डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान निर्माता घोषित कर सकती है या फिर इसे “भारत का संविधान – संविधान सभा के सभी सदस्यों द्वारा निर्मित” के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
अगर इस विषय पर संवैधानिक और राजनीतिक सहमति नहीं बनी, तो भविष्य में यह विवाद नए जनआंदोलन का रूप ले सकता है, जिससे न केवल देश की सामाजिक एकता प्रभावित होगी बल्कि करोड़ों रुपये का आर्थिक नुकसान भी संभव है।
सर्वोच्च न्यायालय में ‘जूते वाली घटना’ के विरोध में सिर्फ 5 वकील पहुंचे – संविधान और राजनीति पर बड़ा सवाल
