दिखावे की आंधी में खोती संस्कृति : समय रहते संभलना आवश्यक

लेखिका : चंद्रकांति आर्य
तकनीक और आधुनिकता के इस तेजी से बदलते युग में हमारे जीवन का हर पहलू डिजिटल और तेज रफ्तार हो चुका है। यह परिवर्तन विकास का संकेत है, लेकिन इसके साथ एक गंभीर चिंता भी जुड़ी है। हमारी परंपराएं, मूल्य और सांस्कृतिक संवेदनशीलता धीरे-धीरे मिटती जा रही है। सोशल मीडिया ने जहाँ अभिव्यक्ति का नया मंच दिया है, वहीं यह हमारे पारिवारिक और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र बिंदु, त्योहारों, संस्कारों और सामूहिकता को भी प्रभावित कर रहा है।
पहले त्योहार परिवारों को जोड़ते थे। एक ही छत के नीचे तैयारी होती, पूजा सामग्री का चयन होता, बच्चे परंपराओं को सीखते, और हर कदम पर भावनाओं का गहरा जुड़ाव होता। लेकिन आज त्योहार तिथि से पहले ही सोशल मीडिया पर मनाए जाने लगे हैं। प्री सेलिब्रेशन की यह प्रवृत्ति सांस्कृतिक भ्रम और दिखावे की दौड़ दोनों को जन्म दे रही है। दीपावली हो या करवाचौथ, रक्षाबंधन हो या तीज, इनके पीछे की आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक रीति-परंपराएं धीरे धीरे फोटोशूट और सजावट की चमक में धुंधली हो रही हैं। त्योहार का मूल भाव, उसकी पवित्रता, अक्सर परफेक्ट पोस्ट की तलाश में खो जाती है।

*फोटो की होड़ में मर्यादाओं का क्षरण :*

यह सच है कि तस्वीरें स्मृति बन जाती हैं, पर आज तस्वीरें स्मृति नहीं, प्रस्तुति का साधन बन चुकी हैं। खासकर महिलाओं और युवाओं में थीम फोटोशूट का चलन इस हद तक बढ़ गया है कि कई बार उत्सव का असली अर्थ ही पीछे छूट जाता है। परिधान, मेकअप, बैकग्राउंड और फिल्टर, इन सबके बीच त्योहार का वास्तविक आनंद कहीं गुम हो जाता है। इतना ही नहीं कई जगह यह प्रवृत्ति फूहड़ता या अनावश्यक प्रदर्शन तक पहुँचकर हमारे संस्कारों की मर्यादा को भी चोट पहुँचाती है। भारतीय समाज में विवाह केवल एक सामाजिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि सात फेरे, सात वचन और सात जन्मों के बंधन का पवित्र संस्कार है।

*मनोरंजन सामग्री बनते त्योहार और रीति-रिवाज :*

त्योहार और पारिवारिक रीति-रिवाज अब मनोरंजन सामग्री बनते जा रहे हैं। रील्स और पोस्ट्स देखने में भले आकर्षक लगें, लेकिन यह धीरे-धीरे हमारी जड़ों को कमजोर कर रहे हैं। नयी पीढ़ी संस्कारों की सीख परिवार से कम और सोशल मीडिया के ट्रेंड्स से अधिक ले रही है। यह भविष्य के लिए चिंताजनक संकेत है। समस्या आधुनिकता नहीं है, समस्या है अत्यधिक दिखावे का आकर्षण। हालांकि इसका समाधान भी सरल है, उत्सव मनाएं, पर तिथि और परंपरा का सम्मान रखते हुए। फोटो लें, पर मर्यादा और सादगी के साथ। आधुनिकता अपनाएं, पर संस्कृति की कीमत पर नहीं। डिजिटल दुनिया में रहें, पर अपनी जड़ों से जुड़े रहें। त्योहारों की आत्मा सजावट में नहीं, परिवार के साथ बिताए गए उन पलों में छुपी है, जो दिल को छूते हैं न कि सिर्फ स्क्रीन को। समय की मांग यही है कि हम खुद भी सजग हों और आने वाली पीढ़ी को भी समझाएँ कि संस्कृति केवल वीडियो या फोटो का विषय नहीं, बल्कि जीने की शैली है। जब दिखावे की जगह भावना प्रधान होगी, तब ही हमारे संस्कार जीवित रह पाएंगे। हमारी परंपराएं हमारी पहचान हैं, और पहचान तब तक सुरक्षित है, जब तक हम उसे जीते हैं, दिखाते नहीं।
माना जाता है। जहाँ पहले जीवन की खूबसूरती विवाह के बाद साथ बिताए गए पलों में दिखती थी, आज वह विवाह से पहले ही प्री-वेडिंग शूट्स के माध्यम से सार्वजनिक कर दी जाती है। प्रदर्शन और ट्रेंड्स के इस युग में विवाह का पवित्र भाव कमजोर पड़ता महसूस होता जा रहा है। संस्कार पर इवेंट मैनेजमेंट हावी हो गया है, और भावना पर थीम आधारित सेटअप।

*(लेखिका साहित्यकार एवं सामाजिक विश्लेषक हैं)*

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