Opinion

चंपा बिस्वास कांड: 1990 के दशक का विवादित मामला जिसने बिहार की राजनीति और कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े किए

         साल 1998 का चंपा बिस्वास कांड आज भी बिहार के उस दौर की काली छवि का स्मरण कराता है, जब सत्ता-राजनीति और सामाजिक दबदबे के बीच आम नागरिकों की सुरक्षा सवालों के घेरे में थी। चंपा बिस्वास, जो एक वरिष्ठ IAS अधिकारी बी.बी. बिस्वास की पत्नी थीं, ने तब दर्जनों गंभीर आरोप राज्य के उच्च पदाधिकारियों से लेकर मीडिया तक उठाए — जिनमें उनके और उनके परिजनों के खिलाफ कथित बलात्कार और धमकियां शामिल थीं। इस मामले ने तत्कालीन राजनैतिक माहौल, ‘जंगल राज’ के आरोपों और अंततः अदालत की कार्रवाई तक का रास्ता तय किया।

मामला और दावे

चंपा बिस्वास ने 1998 में राज्यपाल को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि राजद (RJD) से जुड़े एक प्रभावशाली परिवार तत्कालीन सामाजिक कल्याण विभाग की अध्यक्ष हेमलता यादव और उनके पुत्र मृत्युंजय (जिसे बाबलू/मृत्युंजय के नाम से जाना जाता है)  और उनके साथियों ने 1995 से 1997 के बीच चंपा, उनकी मां, ननद, दो नौकरानियों और भतीजी के साथ मारपीट और बलात्कार किया। चंपा ने पत्र में यह भी कहा कि दो नौकरानियां व भतीजी लापता हैं और उन्हें आत्महत्या का शक है, साथ ही उनके परिवार और बच्चों को जान से मारने की साजिश रची जा रही है  और उन्होंने सुरक्षा की मांग की। इन गंभीर दावों ने तत्काल राजनीतिक और प्रशासनिक हलचल मचा दी।

राजनीतिक हलचल और जांच की मांग

बिहार में उस दौर की सत्तारूढ़ राजनीति और तेजबाज़ी के कारण यह मामला जल्दी ही सुर्खियों में छा गया। भाजपा के सुशील मोदी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चंपा का पत्र सार्वजनिक किया और प्रदेश सरकार पर दबाव बनाया। राज्यपाल ने केंद्र और गृहमंत्री को पत्र लिखकर मामले में कार्रवाई और जांच की मांग उठाई। मीडिया में भी यह कांड बड़े पैमाने पर छपा और ‘जंगल राज’ वाले कंट्रास्ट को लेकर बहस तेज हुई।

पुलिस जांच, शिकायतें और शुरुआती रुकावटें

चंपा और उनके पति बी.बी. बिस्वास ने स्थानीय पुलिस और उच्चाधिकारियों को कई बार लिखित शिकायतें दीं; परिवार का आरोप था कि शुरुआती दौर में स्थानीय पुलिस ने अपेक्षित कार्रवाई नहीं की और प्रभावशाली राजनीतिक दबाव के कारण मदद नहीं मिली। इस कारण चंपा ने नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन और राज्यपाल तक अपनी दुर्दशा पहुंचाई। बाद में डीजीपी के आदेश से मामले की जांच शुरू हुई और मुकदमा चलाया गया।

अधिनयम और अदालत की कार्रवाई

मुकदमेबाजी लंबे समय तक चली। Patna की अदालतों में सुनवाई के बाद 2002 में सोमवारीन (Patna district court) ने इस मामले में मृत्युंजय (बबलू) को दोषी ठहराते हुए सजा सुनाई — उन्हें 10 साल की सजा और जुर्माना जैसे दंड दिए गए। विभिन्न रिपोर्टों में मुकदमों, अपीलों और कुछ आवंटित सजा/रिहाई के संदर्भ दर्ज हैं, जो इस केस की जटिलता और राजनीतिक चमक-दमक को दर्शाते हैं। अदालत की कार्यवाही ने साबित कर दिया कि गंभीर आरोपों पर न्यायालय ने दायर साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लिया।

सामाजिक और राजनीतिक मायने

चंपा बिस्वास कांड ने सिर्फ एक व्यक्तिगत घोर अत्याचार का मामला नहीं छोड़ा, इसने बिहार के शासन-व्यवस्था, राजनीतिक संरक्षण और बलशाली नेताओं के विरुद्ध नागरिकों की असमर्थता जैसी व्यापक बहस को जन्म दिया। इस प्रकरण को उस दौर के ‘कठोर राजनीतिक संरक्षण बनाम सामान्य नागरिक सुरक्षा’ की मिसाल के रूप में देखा गया। मीडिया, मानवाधिकार संस्थाओं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने इसे सत्ता के दुरुपयोग और कानून व्यवस्था के फैलाव का उदाहरण कहा।

निष्कर्ष और आज का परिप्रेक्ष्य

वर्षों बाद भी यह मामला बिहार की राजनीतिक स्मृति में दर्ज है, क्योंकि यह बताता है कि कैसे आरोपों, जांचों और अदालतों के बीच एक पीड़ित परिवार को न्याय तक पहुंचने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है। चंपा बिस्वास के दावों और अदालत के फैसलों ने उस समय के राजनीतिक नेतृत्व, पुलिस और न्याय व्यवस्था पर गहराई से प्रश्न खड़े किए। इस कांड की कहानियाँ, रिपोर्टिंग और कोर्ट रिकॉर्ड आज भी शोधकर्ताओं और पत्रकारों के लिए स्रोत बने हुए हैं।



नोट: इस लेख में इस्तेमाल जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध मीडिया रिपोर्टों और अदालत के दस्तावेजों पर आधारित है;  अदालत के नतीजों का हवाला दिया गया है।

Related Articles