तेलंगाना सरकार ने हाल ही में पब्लिक सर्विस कमीशन (PSC) प्रीलिम्स परीक्षा में आरक्षण समाप्त करने का निर्णय लेकर बड़ा राजनीतिक और सामाजिक संकेत दिया है। यह निर्णय न केवल प्रशासनिक सुधार के रूप में देखा जा रहा है, बल्कि इसे योग्यता आधारित चयन प्रणाली की वापसी के रूप में भी प्रस्तुत किया जा रहा है। वहीं इस फैसले ने सामाजिक न्याय और अवसर की समानता पर एक बार फिर बहस को जन्म दिया है।
तेलंगाना सरकार द्वारा PSC प्रीलिम्स परीक्षा से आरक्षण समाप्त करने का कदम देशभर में सुर्खियों में है। लंबे समय से आरक्षण को लेकर चल रही नीतिगत बहस में यह निर्णय एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जा रहा है। सरकार का तर्क है कि प्रारंभिक परीक्षा का उद्देश्य केवल योग्यता करना है, जबकि सामाजिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण का प्रभाव अंतिम चयन में देखा जाना चाहिए।
राज्य सरकार का कहना है कि यह निर्णय प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने और समान प्रतियोगिता का माहौल बनाने की दिशा में लिया गया है। कई शिक्षाविदों और युवा वर्ग के एक हिस्से ने इस निर्णय का स्वागत किया है, जबकि आरक्षण समर्थक संगठनों ने इसे सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर प्रहार बताया है।
यह निर्णय भारत की उस ऐतिहासिक और वैचारिक बहस को भी पुनर्जीवित करता है, जिसमें यह प्रश्न अक्सर उठाया गया है कि क्या हमारे संविधान और नीतियों का मूल उद्देश्य योग्यता को प्रोत्साहन देना था या प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता देना?
यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान निर्माण के दौरान भी इसी तरह की विचारधारात्मक द्वंद्व दिखाई दिया था। इतिहास बताता है कि संविधान की रचना केवल डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में नहीं, बल्कि कई अन्य प्रतिभाशाली मस्तिष्कों के योगदान से हुई। इनमें सर बी.एन. राउ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिन्होंने संविधान का पहला प्रारूप तैयार किया और अनेक कानूनी प्रावधानों की नींव रखी।
दुर्भाग्यवश भारतीय राजनीतिक विमर्श में राउ जैसे व्यक्तित्वों को लगभग भुला दिया गया, जबकि अंबेडकर को संविधान का एकमात्र प्रतीक बना दिया गया। यह चयन जैसा कि इतिहासकारों का मानना है, सत्ता की रणनीति और सामाजिक इंजीनियरिंग का परिणाम था।
राउ न आंदोलनकारी थे, न करिश्माई नेता। वे एक विद्वान, विधिवेत्ता और दूरदर्शी विचारक थे। उनके योगदान को दरकिनार कर देना भारतीय इतिहास की एक बड़ी चूक रही है। यह विस्मरण केवल एक व्यक्ति की उपेक्षा नहीं, बल्कि इतिहास की सत्यनिष्ठा पर प्रश्नचिह्न है।
आज जब तेलंगाना सरकार का निर्णय योग्यता बनाम आरक्षण की बहस को फिर से केंद्र में ला रहा है, तब यह सवाल उठता है कि क्या हमारा सामाजिक न्याय केवल प्रतीकवाद तक सीमित रह गया है? क्या हम प्रतिभा और परिश्रम के वास्तविक सम्मान से दूर होते जा रहे हैं?
इतिहास सिखाता है कि लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब वह सत्य, निष्पक्षता और योग्यता के संतुलन पर खड़ा हो। राउ और अंबेडकर दोनों ही भारतीय संविधान की आत्मा हैं, एक ने उसकी वैचारिक रूपरेखा गढ़ी, दूसरे ने उसे सामाजिक अर्थ दिया। इन्हें प्रतिस्पर्धी नहीं, पूरक रूप में देखने की आवश्यकता है।
तेलंगाना का यह निर्णय केवल एक परीक्षा पद्धति में बदलाव नहीं, बल्कि भारतीय नीति-चिंतन के गहरे स्तर पर चल रहे संघर्ष का प्रतीक है। यह संघर्ष है समान अवसर बनाम ऐतिहासिक प्रतिपूर्ति, योग्यता बनाम प्रतिनिधित्व, और राजनीतिक प्रतीक बनाम बौद्धिक ईमानदारी का।
यदि भारत को वास्तव में न्यायपूर्ण और प्रगतिशील समाज बनाना है, तो उसे इतिहास की इस असंतुलित स्मृति को ठीक करना होगा। सर बी.एन. राउ जैसे विस्मृत नायकों को पुनर्स्थापित करना, और नीति निर्माण में योग्यता की पुनर्परिभाषा करना, एक नई शुरुआत हो सकती है।
तेलंगाना सरकार का बड़ा फैसला: PSC प्रीलिम्स में आरक्षण खत्म, सामाजिक न्याय बनाम योग्यता पर फिर छिड़ी बहस
