शुलिनी विश्वविद्यालय का नवाचार: बियर उद्योग के अपशिष्ट से डायबिटीज-फ्रेंडली स्वीटनर तैयार, 4 पेटेंट हासिल

डॉ. सृष्टि माथुर की बायोटेक्नोलॉजिकल प्रक्रिया से बना पर्यावरण-मैत्रीपूर्ण ‘ज़ाइलिटॉल’
सोलन । हिमाचल प्रदेश स्थित शुलिनी विश्वविद्यालय ने बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में एक नई उपलब्धि दर्ज की है। विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक डॉ. सृष्टि माथुर ने ऐसा अनूठा तरीका विकसित किया है, जिससे बियर उत्पादन के अपशिष्ट (Brewer’s Spent Grain – BSG) से डायबिटीज-फ्रेंडली स्वीटनर ‘ज़ाइलिटॉल’ तैयार किया जा सकता है। यह शोध स्वस्थ आहार, पर्यावरणीय स्थिरता और औद्योगिक अपशिष्ट प्रबंधन की दिशा में एक बड़ी प्रगति साबित हुआ है।
ज़ाइलिटॉल एक कम-कैलोरी प्राकृतिक स्वीटनर है जिसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स मात्र 7 है, जबकि सामान्य चीनी का 68 होता है। यह डायबिटीज रोगियों के लिए सुरक्षित विकल्प है और भारत में FSSAI तथा अमेरिका की FDA (GRAS) से स्वीकृत है। इसका उपयोग शुगर-फ्री चॉकलेट्स, च्युइंग गम, पेय पदार्थों और हेल्दी डेज़र्ट्स में किया जा सकता है।
डॉ. सृष्टि माथुर का यह नवाचार प्रो. दिनेश कुमार (प्रमुख, स्कूल ऑफ बायोइंजीनियरिंग एंड फूड टेक्नोलॉजी) और डॉ. विनोद कुमार के मार्गदर्शन में पूरा हुआ। इस यीस्ट-आधारित किण्वन प्रक्रिया में Pichia fermentans का उपयोग किया गया, जो यूनाइटेड किंगडम के क्रैनफील्ड विश्वविद्यालय से प्राप्त किया गया है। इस तकनीक में कठोर रसायनों की आवश्यकता नहीं होती, उत्पादन लागत लगभग 40% तक कम होती है और प्रति किलोग्राम कीमत लगभग 2 डॉलर घट जाती है।
इस नवाचार पर चार पेटेंट प्राप्त हुए हैं, जो पारंपरिक ऊर्जा-गहन हाइड्रोजनेशन प्रक्रिया की तुलना में एक टिकाऊ और पर्यावरण-मैत्रीपूर्ण विकल्प प्रस्तुत करते हैं।
डॉ. माथुर ने कहा, “यह तकनीक औद्योगिक उप-उत्पादों को मूल्यवान संसाधन में बदलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो अपशिष्ट प्रबंधन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सतत औद्योगिक विकास को जोड़ती है।”
यह शोध संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (SDG 12 और SDG 9) को भी समर्थन देता है और वैश्विक $1.2 बिलियन ज़ाइलिटॉल मार्केट में भारत की वैज्ञानिक क्षमता को नई पहचान दिलाता है।



