राष्ट्रपति और राज्यपाल कानून से ऊपर नहीं! सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद उठे सवाल

राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की सीमा से परे क्यों दिखाया जा रहा है?

देश की संवैधानिक व्यवस्था में इन दिनों एक नई बहस जोर पकड़ रही है—क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों से ऊपर हैं?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा था कि राज्यपाल किसी राजा की तरह नहीं रह सकते, उनका कार्यकाल और कर्तव्य संविधान द्वारा तय है। मगर अब सवाल उठ रहा है कि क्या राष्ट्रपति को भी यही नैतिक ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए?

सवालों के घेरे में राष्ट्रपति भवन का ‘राजसी व्यवहार’

राज्यपाल और राष्ट्रपति भव्य महलों में रहते हैं, जिससे कभी-कभी भ्रम होता है कि वे राजा हैं। लेकिन संविधान साफ कहता है कि भारत लोकतांत्रिक गणराज्य है, न कि राजशाही। ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट अपनी सख्ती दिखाता है, तो क्या राष्ट्रपति उससे ऊपर हो सकती हैं?

क्या मोदी सरकार चाहती है सुप्रीम कोर्ट की भूमिका कमजोर करना?

राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि केंद्र सरकार शायद नहीं चाहती कि सुप्रीम कोर्ट पूरी ताकत से फैसले ले। राष्ट्रपति का विलंब, संवैधानिक नियुक्तियों में टालमटोल और राज्यपालों का निष्क्रिय रवैया इस आशंका को बढ़ाता है।

क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति की कोई जवाबदेही नहीं?

राज्यपाल कई बार विधायकों के बहुमत परीक्षण में देरी करते हैं, जिससे सरकारें गिर जाती हैं या अस्थिर हो जाती हैं। राष्ट्रपति की ओर से भी कई विधेयकों पर देर से हस्ताक्षर या कोई प्रतिक्रिया नहीं आती, जिससे जनहित प्रभावित होता है।

क्या राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के नियमों से ऊपर हैं?

संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है, लेकिन वे सुप्रीम कोर्ट या संविधान से ऊपर नहीं हैं। राष्ट्रपति को भी तय समय-सीमा में फैसले लेने चाहिए, ताकि न्यायिक प्रक्रिया और लोकतंत्र मजबूत हो।

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