नई दिल्ली, । देश के सामने 50 से अधिक वर्षों तक माओवादी आतंकवाद ने एक चुनौतीपूर्ण छाया डाली थी। नक्सलवाद सिर्फ हिंसा का नाम नहीं था, बल्कि यह गरीब आदिवासी और ग्रामीण नौजवानों के भविष्य को भी प्रभावित करता रहा। कांग्रेस शासन में कई ऐसे क्षेत्र थे, जहां नक्सली समूहों का इकोसिस्टम इतना हावी था कि माओवादी हिंसा की घटनाओं को आम जनता तक पहुँचने नहीं दिया जाता था।बीते दशकों में माओवादी आतंकवाद ने हजारों नागरिकों, सुरक्षा बलों और नौजवानों की जानें लीं। अस्पतालों, स्कूलों और बुनियादी सुविधाओं पर कब्जा कर उन्हें चलाना भी मुश्किल हो गया। पीड़ितों में बच्चों और महिलाओं सहित अनेक निर्दोष लोग थे, जिनके हाथ-पैर और जीवन अंगों से वंचित कर दिए गए।
लेकिन 2014 के बाद सरकार की सक्रिय रणनीति ने इस दिशा में बदलाव लाना शुरू किया। नीति और संवेदनशील पुनर्वास कार्यक्रमों के माध्यम से हजारों नक्सलियों ने हथियार डालकर संविधान को स्वीकार किया और विकास की मुख्यधारा में लौटने का मार्ग अपनाया। पिछले 75 घंटों में ही 303 नक्सली सरेंडर कर चुके हैं, जिनमें कई पर पहले करोड़ों का इनाम घोषित था। आज बस्तर जैसे माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में आदिवासी युवा “बस्तर ओलंपिक” का आयोजन कर रहे हैं। दशकों के बाद इस बार दीवाली का त्योहार भी इन क्षेत्रों में आनंद और सुरक्षा के साथ मनाया जाएगा। यह बदलाव न केवल सुरक्षा बलों की सफलता का परिणाम है, बल्कि स्थानीय लोगों की मेहनत और सरकार की नीति का भी परिणाम है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह भारत के नक्सलवाद मुक्त होने की दिशा में ऐतिहासिक मोड़ है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसे “देश की गारंटी” बताते हुए कहा कि नक्सलियों का पुनर्वास और क्षेत्रीय विकास सुनिश्चित करने के लिए यह प्रयास जारी रहेगा।
माओवादी आतंक पर भारत की लड़ाई: नक्सलवाद से मुक्त होता बस्तर
