
लेखक: श्यामसुंदर शर्मा
नगर सरकार, जिसे हम नगर पालिका निगम के नाम से जानते हैं, का मुख्य उद्देश्य शहरवासियों को मूलभूत सुविधाएँ—साफ-सफाई, जल आपूर्ति, सड़क, प्रकाश व्यवस्था आदि—उपलब्ध कराना होता है। लेकिन हालिया घटनाओं और समाचारों से जो चित्र उभर कर सामने आ रहा है, वह कहावत को साकार करता प्रतीत होता है: “बागड़ ही खेत को चर रही है।”
प्रशासनिक निष्क्रियता और भ्रष्टाचार की छाया
वर्तमान में नगर सरकार जैसी संस्था में कुछ तथाकथित लोगों के आचरण से ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने पद का दुरुपयोग करते हुए जनता की अपेक्षाओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर रहे हैं। वीडियो और समाचारों के माध्यम से यह स्पष्ट हुआ है कि न केवल जो कुछ हो चुका है वह चिंताजनक है, बल्कि जो भविष्य में हो सकता है, उसकी आशंका और भी भयावह है।
गांधीजी के चार बंदरों जैसी चुप्पी!
दुखद बात यह है कि नगर सरकार में व्याप्त इन अनियमितताओं पर जिम्मेदार अधिकारी मौन हैं। जैसे सबने “बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो” की नीति अपनाई हो। लेकिन यह मौन अब मूल्य चुकवा रहा है—जनता को भी और ईमानदार कर्मचारियों को भी।
भ्रष्टाचार का तंत्र—ऊपरी संरक्षण की भूमिका
जिस किसी भी शासकीय संस्था में भ्रष्टाचार होता है, वहाँ यह केवल निचले स्तर के कर्मचारियों तक सीमित नहीं होता। यह एक पूरी श्रृंखला होती है जिसमें उच्च अधिकारियों और विशेष प्रतिनिधियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष संरक्षण होता है। अधिकारी अपने पद और प्रभाव का उपयोग अपने व्यक्तिगत आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए करते हैं, और उनके मातहतों से वही उम्मीद रखते हैं।
जन भावना को आघात—कब तक सहें आमजन?
जनता की मूलभूत सुविधाओं में हो रही लापरवाही, योजनाओं में हो रही आर्थिक अनियमितताएँ और कार्यों में पारदर्शिता की कमी इस बात की ओर इशारा करती है कि नगर सरकार की प्राथमिकता में जनता कहीं नहीं है। सवाल यह है कि कब तक आमजन इस व्यवस्था को चुपचाप सहते रहेंगे?
समय है सजग होने का
अब आवश्यकता है कि नगर सरकार के जिम्मेदार लोग आत्मचिंतन करें और जवाबदेही तय हो। दोषियों के विरुद्ध कड़ी दंडात्मक कार्रवाई की जाए। अन्यथा यह व्यवस्था धीरे-धीरे पूरी तरह से विश्वासहीन और निष्प्रभावी होती जाएगी।

