
नई दिल्ली: बच्चों की परवरिश और शिशु देखभाल को लेकर सोशल मीडिया पर एक विचार इन दिनों तेजी से वायरल हो रहा है, जिसने लाखों माता-पिता को सोचने पर मजबूर कर दिया है। इस विचार के अनुसार, जब एक बच्चा इस दुनिया में जन्म लेता है, तो उसके जीवन के पहले चार साल उसकी मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक नींव के लिए बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। इन शुरुआती वर्षों में मां या पिता में से किसी एक का पूर्ण रूप से घर पर रहना और बच्चे को समय देना आवश्यक माना जा रहा है।
पेरेंटिंग टिप्स विशेषज्ञों का भी यही मानना है कि एक बच्चे को केवल भौतिक देखभाल की नहीं, बल्कि गहरे स्तर पर भावनात्मक जुड़ाव की भी ज़रूरत होती है। एक नवजात शिशु को जब ममता, अपनापन और सुरक्षा का एहसास होता है, तभी वह आत्मविश्वास से भरकर दुनिया को समझने और सीखने की प्रक्रिया में आगे बढ़ता है। यही कारण है कि पेरेंट्स की जिम्मेदारी सिर्फ आर्थिक सुरक्षा तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनकी मौजूदगी भी बच्चे के विकास में अहम भूमिका निभाती है।
शिशु देखभाल के पहले चार साल बनाते हैं जीवन की नींव
शोध भी बताते हैं कि शिशु के मस्तिष्क का 90% विकास उसके जीवन के पहले पांच वर्षों में हो जाता है। ऐसे में अगर मां या पिता में से कोई एक इन वर्षों में घर पर रहकर बच्चे को पूरा समय दे, तो बच्चे की सीखने की क्षमता, भावनात्मक स्थिरता और सामाजिक व्यवहार काफी बेहतर बनता है।
मां या पिता – फैसला परिवार की सहमति से हो
यह जरूरी नहीं कि हमेशा मां ही घर पर रहे। आज की बदलती सामाजिक संरचना में पिता भी समान रूप से शिशु देखभाल की जिम्मेदारी निभा सकते हैं। यह निर्णय परिवार की आर्थिक स्थिति, भावनात्मक समझ और आपसी सहयोग के आधार पर लिया जाना चाहिए। सबसे अहम बात यह है कि बच्चा जब भी परेशान हो, उसके पास कोई ऐसा हो जो उसे गले लगाकर भरोसा दे सके।
निष्कर्ष:
अगर हम एक मजबूत, संवेदनशील और समझदार पीढ़ी बनाना चाहते हैं, तो बच्चों की परवरिश में पहले चार साल की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसलिए हर माता-पिता को यह सोचना चाहिए कि अपने शिशु के शुरुआती वर्षों में उनकी मौजूदगी और ममता ही सबसे बड़ा उपहार है।