
सबसे पहले फिक्र अपनी धरती की, जिस पर बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है. ये खतरा है जलवायु परिवर्तन का, जिसे आमतौर पर किताबी बातें कहकर टाल दिया जाता है और इसकी गंभीरता को नहीं समझा जाता. आज हम आसान शब्दों में क्लाइमेट चेंज की गंभीरता समझाएंगे. सबसे पहले ये जान लीजिए कि ये वो संकट है, जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ इंसान जिम्मेदार हैं. ये संकट इतना विकट हो चुका है कि अगर दुनिया के लोग और दुनियाभर की सरकारें अब भी सचेत नहीं हुईं तो फिर जो नुकसान इंसानियत झेलेगी, ये दुनिया झेलेगी उसकी भरपाई करना मुमकिन नहीं होगा. माना जा रहा है कि कुछ दशकों के अंदर ये धरती रहने लायक नहीं रह जाएगी और इसलिए इस संकट पर सबसे बड़ा मंथन हो रहा है.
अब से थोड़ी देर बाद स्कॉटलैंड के ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन को लेकर महामंथन में पीएम मोदी संबोधित करेंगे. माना जा रहा है कि पीएम मोदी क्लाइमेट जस्टिस की पुरजोर वकालत करेंगे. पेरिस समझौते में विकसित देशों ने शपथ ली थी कि वो हर साल जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 100 बिलियन डॉलर देंगे, मगर हकीकत में ऐसा हुआ नहीं. कहा जा रहा है कि भारत विकसित देशों को वो वादा भी याद दिलाएगा. COP26 समिट जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के लिए 26वीं कॉन्फ्रेंस चल रही है. COP यानी कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के लिए दुनिया का सबसे बड़ा मंच है, जिसका गठन 1994 में हुआ था. इसमें 190 से ज्यादा देशों के नेताओं और रिसर्चर्स के बीच जलवायु परिवर्तन पर समझौते की बात होती है.
ग्लोबल वार्मिंग को कंट्रोल करना है COP का पहला टारगेट
दुनिया को बचाने के लिए COP के टारगेट में सबसे पहला है ग्लोबल वार्मिंग को कंट्रोल करना, धरती के तापमान में बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना. दूसरा है लॉन्ग-टर्म ‘नेट जीरो’ का टारगेट हासिल करना मतलब जितनी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है, उतनी ही मात्रा में उन गैसों को हटाने का काम हो, ये सुनिश्चित करना. 100 अरब डॉलर का जलवायु वित्त भी टॉप प्रॉयरिटी में है, इसके तहत विकसित देशों की ओर से कम आय वाले देशों को आर्थिक और तकनीकी मदद मुहैया कराना है, ताकि वहां ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सके. COP के टारगेट में दुनियाभर में ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता को चरणबद्ध तरीके से कम करना है, इसके लिए रिन्यूएबल एनर्जी सोर्स में निवेश पर फोकस बढ़ाना है.
ये सब करना इसलिए जरूरी है कि रोजाना धरती के किसी ना किसी कोने से छोटी या बड़ी प्राकृतिक आपदा की खबर सामने आती है. कहीं भीषण बारिश और बाढ़ का कहर बरपता है, तो कहीं पहाड़ दरकते हैं तो कहीं सूखा पड़ता है. इसके अलावा कहीं जंगलों में भीषण आग लगती है, लेकिन मौसम की मार ये तमाम घटनाएं अनायास ही नहीं घट रही हैं. ये चेतावनी है पूरी दुनिया के लिए, जिसके बारे में हाल ही में यूएन की संस्था IPCC यानी Intergovernmental Panel on Climate Change ने आगाह किया था.
2030 तक धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ने की आशंका
2030 तक धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ने की आशंका है. पूर्वानुमान से 10 साल पहले ही 1.5 डिग्री तापमान बढ़ने का डर है. इस सदी के अंत तक समुद्र का जलस्तर 2 मीटर बढ़ने की आशंका है. इस रिपोर्ट को 60 देशों के 200 वैज्ञानिकों ने 14 हजार साइंस पेपर्स के आधार पर तैयार किया है, जिसके मुताबिक अगर धरती का तापमान 1.5 डिग्री तक बढ़ गया तो ग्लेशियर पिघलने और झील फटने की घटनाएं बढ़ेंगी. इसके अलावा मैदानी इलाकों के साथ पहाड़ों में भी गर्मी तेजी से बढ़ेगी. समुद्र में जलस्तर बढ़ेगा, मानसून अनिश्चित होगा. ऐसा नहीं है कि ये अभी नहीं हो रहा है. ये हो रहा है और लगातार हो रहा है. विकास की दौड़ और होड़ में इंसान ने कुदरत से जो खिलवाड़ किया है, उसका खामियाजा भुगत रहा है.
बीते 50 सालों में धरती का संतुलन बहुत ही ज्यादा बिगड़ चुका है और यही वजह है कि रोजाना धरती के किसी ना किसी कोने से छोटी या बड़ी त्रासदी की खबर सामने आ जाती है, जिसके चलते दुनिया में रोज 115 लोग अपनी जान गंवाते हैं. यूएन के World Meteorological Organization के मुताबिक दुनिया में बीते 50 साल में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या 5 गुना बढ़ गई है. करीब 11 हजार आपदाएं आईं, जिनमें 20 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई है. सबसे अधिक मौत तूफान, बाढ़, सूखे के कारण हुईं और इनमें 90 फीसदी मौत विकासशील देशों में हुईं और उन देशों में हमारा देश भी है, जहां हर साल मौसम की मार तेज होती जा रही है.
मौसम की मार की जो घटनाएं हम अपने आसपास देख रहे हैं, वो अनायास ही नहीं घट रही हैं. ये उस महाविनाश के खतरे की दस्तक है, जिसे इंसान को अब तक सुन लेना चाहिए था. सरकारों को एक्शन में आ जाना चाहिए था, लेकिन अफसोस ऐसा हुआ नहीं और उसका नतीजा हमारे सामने जलवायु संकट के तौर पर है. इसके चलते कहीं बेहिसाब बारिश से भीषण बाढ़ आती है, लैंडस्लाइड होते हैं तो कहीं प्रचंड गर्मी पड़ती है. भीषण सूखा पड़ता है तो कभी तूफान तबाही मचाते हैं.
मानसून के व्यवहार में बदलाव इसका सबसे बड़ा संकेत
ये खतरा हर गुजरते दिन के साथ और ज्यादा गहराता जा रहा है. मानसून के व्यवहार में बदलाव इसका सबसे बड़ा संकेत है जो बाढ़ और सूखा, गर्मी और सर्दी की चरम घटनाओं के लिए जिम्मेदार है. इस वजह से देश में हर साल लाखों लोगों की जान जा रही है. मशहूर मेडिकल जर्नल लेंसेट की एक स्टडी के मुताबिक भारत में हर साल करीब 7 लाख 40 हजार लोग असामान्य ठंड या गर्म तापमान की वजह से मर रहे हैं. आने वाले वर्षों में हालात और भी भयावह हो सकते हैं. ये बात यूएन की हालिया रिपोर्ट में भारत के लिए जारी चेतावनी से समझिए.
भारत में जलवायु परिवर्तन को लेकर CMCC यानी यूरो-मेडेटेरेनियन सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट में 40 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है, जिसके अनुसार अगर ग्रीन हाउस गैसों की उत्सर्जन दर ज्यादा रही तो 2036 से 2065 तक बाढ़ के खतरे का दायरा 13 लाख की आबादी से बढ़कर 1 करोड़ 80 लाख लोगों तक पहुंच जाएगा. इसके अलावा लू का समय 25 गुना बढ़ जाएगा. भीषण सूखे का सामना होगा. गर्मी बढ़ने से फसलों के उत्पादन पर असर होगा. भारत में चावल और गेहूं के उत्पादन में कमी से 2050 तक 81 बिलियन पौंड का आर्थिक नुकसान और किसानों की आय को 15 फीसदी का नुकसान हो सकता है. ये सब रोका जा सकता है, जरूरत सिर्फ मौसम की मार को सीजनल मानने वाली सोच को छोड़ना होगा. देश के लिए लोगों को और सरकार को जिम्मेदारी समझनी और निभानी होगी, क्योंकि अगर समय रहते नहीं संभले, तो जलवायु संकट और विकट होना तय है.
समझने की बात ये है कि देश में जब कुदरती आपदा आती है तो इससे सिर्फ जान का ही नुकसान नहीं होता बल्कि आर्थिक नुकसान भी होता है. पर्यावरण थिंक टैंक जर्मनवॉच की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु संकट से भारत दुनिया का 7वां सबसे ज्यादा प्रभावित देश है. इसके चलते अगर पिछले साल की बात करें तो World Meteorological Organization के मुताबिक भूकंप, बाढ़, तूफान और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से भारत को करीब 87 अरब डॉलर यानी करीब 6 लाख 53 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा है. जलवायु संकट से निपटने के लिए भारत अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहा है. उन्हीं कोशिशों का नतीजा है कि पेरिस जलवायु समझौते के तहत 2020 का कार्बन उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य हासिल कर लिया है.
2005 से 2016 के बीच कार्बन उत्सर्जन को 24 फीसदी तक कम किया गया
2005 से 2016 के बीच कार्बन उत्सर्जन को 24 फीसदी तक कम किया गया है. 2030 तक 4,50,000 मेगावाट बिजली अक्षय ऊर्जा से बनाने का लक्ष्य है और अब तक अक्षय ऊर्जा से 3,89,000 मेगावाट बिजली बनाई जाने लगी है. साफ है कि भारत जलवायु संकट की गंभीरता को समझता है और इसलिए हर मुमकिन कोशिश कर रहा है, लेकिन सिर्फ भारत की कोशिशों से कुछ नहीं होने वाला है. जरूरत पूरी दुनिया को मिलकर इस दिशा में काम करने की है, खासकर उन बड़े देशों को जो इस सबका ठीकरा भारत जैसे विकासशील देशों पर फोड़ते हैं. ये ग्राफ जो आप देख रहे हैं, वो बताता है दुनिया में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के बारे में इसमें आप साफ देख सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, चीन और यूरोपीय यूनियन के देशों में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन का आंकड़ा हिंदुस्तान से थोड़ा बहुत नहीं बल्कि बहुत ज्यादा है और ये हाल एक नहीं, बल्कि कई दशकों से है.
हमने आपको ये आंकड़े इसलिए नहीं दिखाए कि दूसरे देशों को कठघरे में खड़ा किया जा सके बल्कि इसलिए दिखाए कि जब तक बड़े मुल्क जलवायु संकट को लेकर संजीदा नहीं होते, तब तक सिर्फ मीटिंग से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है. बीते 26 साल में इस तरह की 25 मीटिंग हो चुकी हैं और इसलिए वक्त है सबके मिलकर काम करने का ताकि दुनिया को बचाया जा सके.
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